स्मृति अतीत की

इस कविता को मैने ८ अप्रैल १९८८ को लिखा था | विशेष बात यह है कि यह आज भी उतनी ही ताजी दिखती है

भारत के भावी लोगो आओ तुम्हें ले चलें वहाँ-वहाँ,
नैतिकता का गला घोंटकर हमने फेका जहाँ-जहाँ

ये देखो ये देवालय हैं प्रेम के पौधे उगते थे,
अब होती है घृणा की खेती ज़हरीले फल फलते हैं

ये रोते विद्यालय देखो ब्रह्माणी के स्वच्छ सदन,
राजनीति के नग्न नृत्य का अब व्यावसायिक भव्य भवन

ये वे ही न्यायालय हैं जो न्याय हेतु विख्यात कभी थे,
आज वही अन्याय हेतु बदनाम हो गये एक-एक ये

बच्चों, यह वह देश जहाँ सदभाव ब्रिष्टि नित होती थी,
निष्कपट हृदय सब ही का था बोली में झरते थे मोती

आज यहाँ बस स्वार्थ हेतु लोगों में मारा-मारी है,
दिन-रात सोच पैसो की सबको वही बाप-महतारी है

जहाँ अहिंसा, प्रेम भावना सुख जीवों को देती थी,
हिंसा की रक्तिम लपटों में हर दीवारें हैं लिपटी

स्वर्ण काल की यादों में भारत माँ बैठी रोती है,
महादेव के चरणों में अपनी करुणा उड़ेलती है

गंगा अतीत की मुक्त करो, लटे जटा की खोलो भोले,
स्वच्छ हृदय दो, आँचल में स्वर्गिक बयार डोले !
-          रमेश चन्द्र तिवारी

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