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महाराजा सुहेलदेव

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देश में दीमक थे दीमक तो अब भी हैं पहले के गेरुए अब लाल, हरे, भूरे हैं। खाते हैं फल फूल काटते जड़ों को किन्तु, दीमकों के दांत आज और भी नुकीले हैं। खोद कर खोखला किया था देश देशी थे, धन उनने गजनी को इज्जत भी सौंपे थे। भारत भयानक वहीँ एक और भारी था, कुत्तों को काटा था ज्यों ही वे भौंके थे। तेंदुओं की सक्क सक्क करती तलवारें थीं, सेना भयानक थी भारत के भेड़ियों की। सन्न-सन्न तीरों से थे सन्न सारे सुन्नती, झुण्ड-झुण्ड जा रहे थे जन्नत को जन्नती। गिरते थे मुण्ड मानों आंधी के आम हों, जिस ओर शूल हो सुहेल का कमान हो। काटी थी चोटियां जिनने तोड़े जनेव थे, हाथ-पाँव काटे उनके राजा सुहेल ने। ओले की मार से परिंदे परसरते जैसे बकरों की शक्ल वाले सैनिक पसर गए। क्रूर कुद्दरूप दैत्य सैयद मसूद हुआ सम्मुख सुहेल के तो हाथ-पैर फूल गए। भूल गया तीर भाला भूला तलवार भी बिजली सी गर्जना सुहेल की ललकार थी। घोडा घुमाया सालार ने खलार पर, भागा भयभीत कोई सिंह से हिरन हो। तीर अर्धचन्द्र शेर हिन्द की कमान से, चीरता अनंत मानो लेजर किरण हो। गर्दन उड़ाया दैत्य मुण्ड गिरा झील में, जय जय सुहेल गूंजा चित्तौरा नील में।     ...