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Showing posts from May 3, 2015

हर चीज़ विकाउ है

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विकती सड़क पर लोन, तेल, तरकारी सब, घोड़ा, हाथी, बकरी ख़रीदो हर दाम पर, घर, खेत, खलिहान विकते है हर जगह, औरत ख़रीदो आदमी कम दाम पर | पंडित विकता है, पुजारी विकते यहाँ, सब्जी के भाव भगवान भी विकात हैं | न्याय विकता मंडी न्यायाधीशों की लगती यहाँ, कोर्ट कचहरी की दुकाने खुले आम हैं | बोलियाँ लगाओ नीलामी नेतो की होती यहाँ-वहाँ, घूमों बिग बज़ार यहाँ विधान के सभाओं के, संसद पर नाज़ वह हमारा वालमार्ट देखो, दुनिया का बज़ार आओ विन रोक-टोक के | - रमेश चंद्र तिवारी

भ्रष्टाचार

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मेरे दिमाग़ के ये शेर 27 फ़रवरी 1988 को पैदा हुए थे | पीने वालों रहम करो इन खाली बोतलों पर ये जीते हैं सिर्फ़ तुमको जिलाने के लिए । दम तोड़ते वक्त मरने वालों ने गुज़ारिश की थी खून को जाम बनाते रहना , पीने वालों को पिलाते रहना । अफ़सोस नहीं अपने सब कुछ के पिए जाने का अफ़सोस है कि पीते वक्त उन्हें खाँसी नहीं आई । माकूल हूँ तुम सबसे ज़्यादा पी सकते हो और पीना बुरी बात है भी बेहतर कह लेते हो । ख़ौफ़ तो है पहले से पीने वालों की दरिया उफन रही है बेसब्री से नौसिख्यों की । धार बूँदों में बदल गई , अफ़सोस पियोगे क्या ! अधिकतर सूखे फल गिरने को तरस रहे हैं । अरमान भर पियो तो भी गम नहीं  पर पीते यहाँ हो रहते वहाँ क्यों ? लोग पीते हैं बदनाम होते हैं । पिए हुए को पीने वाले बगुले , सोचा है , क्यो अच्छे इंसान होते है ? पीने वाले तो नशे में होते हैं पर कुछ मोटे क्यों होते हैं ? खुदा जाने ये लोग हैं कौन जो लोगों का खून पीते हैं । तूफान कर के पत्थरों ने जिस्म ज़ख्मी कर दिए , चट्टान मंगाई का आकर गिर पड़ा मैं दब गया । ची

शान्ती

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इस व्यंग्य रचना को मैने 17 जून 1988 को की | दुनिया में बढ़ती हिंसा पर चल रही थी बात बड़े भैया महाशक्ति के साथ | हमने कहा , ‘ हमारे आपके संबंधों में हो रहा है सुधार |’ उनने कहा , ‘ पाकिस्तान को इसलिए भेज रहे हैं हथियार | इस तरह हमारे पास हो रहा है जखीरा कम और आपकी बात मानते आ रहे हैं हम | अब आप पड़ोसी से मिलिए और अब उससे बात करके तो देखिए |’ ‘ ठीक है करेंगे ,’ हमने कहा , ‘ ज़रूर करेंगे – आप हमारे मित्र हैं और हमेशा रहेंगे | आपको तो मालूम है परोपकार हमारा धर्म है , दूसरों के लिए मरमिटना ही कर्म है | हम धर्म , कर्म निभा रहे हैं आप वाली शान्ती का मानसून बना रहे हैं | यह दुनिया में फैलेगा वर्षा का अथक प्रयास करेगा और हाँ , चुनाव आदि का पूर्ण नौतपा लगने दो बची हुई शान्ती का भी मानसून बनने दो | इस बार एक साथ घना बादल बनकर आएगा हर रोज शांति वर्षाएगा | अंततः हम परोपकारी भी पड़ेंगे शांत जब हमारा हो जाएगा देहांत |' इतने में एक जो पीछे बैठा था चीखा , ' हिंसा का बाप आज का प्रजातंत्र है लोग वेवजेह कहते हैं बहुत आतंक है

Preconception

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Whenever eyed, Eyed the surface of my eyes, Skipping the route to the heart, The passenger of the ship Passed over the view of the restless sea; And believing me to be a stone, My friend never felt the ball of wax That dwelt in the marble vase, Not only to help it live But also to keep alive the hope of it. - Ramesh Tiwari 

Happy Thoughts

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was composed by me on 6th June, 2008. Heaven sends us joy and hopes, Happy thoughts: some real, some jokes. Let’s enjoy each bit of time today Like the sun does on the Eastern Bay, And draw and paint this life with love, With gifts rare for a hawk, for a dove.  - Ramesh Tiwari

हनुमान जयंती

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हनुमान जी महाराज के पिता महाराज केशरी हैं और माता महारानी अंजना हैं | इसके अतिरिक्त उनका परिचय यह है कि वे तीनों महादेवो और तीनों महादेवियों के भी पुत्र हैं इसलिए उन्हें गुणनिधान और मंगल मूरति कहा गया है | जो कोई भी हनुमान जी महाराज को हृदय में बसाता है वह संसार में सुख तो प्राप्त ही करता है साथ ही अंत समय में बैकुंठ धाम में नारायण के दर्शन का आनंद लेता रहता है | महाप्रभु हनुमान जी महाराज का जन्म जेष्ठ मास के पहले मंगलवार को हुआ था | इस मंगलवार को पहला ‘बड़ा मंगलवार’ कहा जाता है | इसी तरह इस महीने में पड़ने वाले सभी मंगलवार को बड़े होने का विशेषण प्राप्त है | अतः मंगल मूरति मारुति नंदन सकल अमंगल मूल निकंदन हनुमान जी की जयंती की सबको ढेरों शुभकामनाएँ ! "बजरंगी तुम्हें मनाऊं सिंदूर लगा लगा के...... तुम्हें राम ने मनाया, लक्षमण ने तुम्हे मनाया सीता ने तुम्हें मनाया, हलुवा पुड़ी खिला के बजरंगी तुम्हें मनाऊं, सिंदूर लगा लगा के...... ब्रह्मा ने तुम्हें मनाया, विष्णु ने तुम्हें मनाया शंकर ने तुम्हें मनाया, डमरू बजा बजा के..... बजरंगी तुम्हें मनाऊं, सिंदूर लगा लगा के...... " भग

मुंशी प्रेम चन्द – हिन्दी साहित्य में योगदान

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' मुंशी प्रेम चन्द – हिन्दी साहित्य में योगदान ' शीर्षक की कुंडलियों को मैने ३१ जूलाई १९८८ को रचा था | पिछले साप्ताह पुराने कागजों में मुझे उस समय की मेरी रचनाओं की हस्तलिपि मिल गयी जिसे अब मैं टाइप कर प्रस्तुत रहा हूँ | काशी के सन्निकट है , पांडेपुर एक ग्राम , उसमें एक कुटुम्ब था , कायथ का गुमनाम , कायथ का गुमनाम , नाम होना था आगे , खुलती है तकदीर , कभी भी नहीं बता के ,   ऊन्निस सौ छत्तीस , विक्रमी संबत आया , करने नया सबेर , धनपती रवि उग आया || हिन्दी औ भारत हुए , धन्य , धन्य पुनि धन्य , प्रेम चन्द नामक मिला , सेवक उन्हें अनन्य , सेवक उन्हें अनन्य , हुए वे गौरवशाली , भरा कथा का पात्र , पूर्व था जितना खाली , वही बना उपचार , रूढ़ि पीड़ित समाज का , छटा अंधविश्वाश , मात्र मुंशी इलाज था || अति प्रिय कायाकल्प है , उनका प्रिय गोदान , प्रेमाश्रम या गबन हो , सबके सभी महान , सबके सभी महान , रंग भूमी लिख डाला , सेवा सदन इत्यादि , उपन्यासों की माला , कर्बला सहित संग्राम , प्रेम की वेदी नाटक , सबको सब दिख जाय ,