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गणतंत्र दिवस

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मंज़िल वही पहुचते हैं जो अपने बल पर चलते हैं, कायर और फिसड्डी केवल भाग्य कोसते रहते हैं | मैदान बुलाने जाता है क्या आकर उस पर खेलो ? अगर खेलना है तुमको तो आगे बढ़कर देखो | मैदान वही है, देश वही है, लोग जीतते तुम भी जीतो, हाथ पकड़कर तुम्हें जिताना क्यों चाहेगा कोई सोचो | हार-हार कर बार-बार क्या टाँग खीचकर जीतोगे ? घृणा अग्नि से पौरुष के पौधों को कैसे सीचोगे ? हर एक पितामह के सीने में देश प्रेम की ज्वाला थी, हर एक हृदय में आज़ादी के सपनों की वरमाला थीं | कौड़ी की कीमत में बिकने प्राणों के तब ढेर लगे थे, सूखी नदियों में बहने को रक्त श्रोत सब उफन पड़े थे | नहीं कभी सोचा था उनने भावी भारत क्या होगा – अपनी ही ज़ंजीरों में वह बुरी तरह जकड़ा होगा ! खींचा-खांची, नोचा-नोची, वही तमाशा, वही हताशा, वही ईर्ष्या, आस मुफ़्त की, घर भरने की वही पिपासा ! प्रबल द्वेष में दिखने लगता प्यार बुरी नज़रों में | भारत माँ के लाल सिपाही हैं, गोली हैं बन्दूखो में, तुम्हें याद 'अधिकार' रहेगा केवल तब तक, भूलो मत ! फिर 'कर्तब्य' निचोड़ेगा रग-रग, कस-कस अंतिम साँसों तक | गणतंत्र दिवस एक राष्ट्र-पर्व