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Showing posts from March 20, 2016

रंग वर्षे

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इस होली - गीत को मैने ४ फ़रवरी , १९८८ को लिखा था । Holi is the expression of people’s delight at the end of a tyranny. It is the festival of love, harmony and lively celebration of the emergence of liberty, order and prosperity. May your life be a rainbow with different colours of achievements one after the other! May happiness keep dancing on the floor of your heart to the music of your accomplishments! May you enjoy fresh dishes of increasing riches day after day! May the New Samvat bring you all success! Happy Holi, everyone! अंग में बिरन्गि रंग सखिन के संग-संग , यौवन मतन्ग मह कहाँ भागी जाती हो , हर्षि- हर्षि कछु कहत सुनत नाहि , इत-उत दौरि-दौरि रंग वर्षाती हो ? कबहुँ चपल नेत दुइ मटकाई के , बीथि के युवक मन चोरि लै जाती हो , मन्द-मन्द नटि कटितट लचकाई के , बाण लै अनन्ग कै शिकार करि जाती हो ?      यौवन के ज़ोर में हो छाती थिरकाती मनु , सागर उफान देखि इन्हें लाज खाती हो , गाल पे गुलाल को लगाय मोरे आज गोरी , हमहि बताओ लोक लाज क्यों भु...

होली

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इस कविता को मैने १७ फ़रवरी , १९८८ को लिखा था । ऋतुराज के आवन की सुधि कोकिल गीत की गूँज दिलावति जैसे रंग भरी पिचकारी बतावत होली नहीं अब दूर है वैसे । फूल खिलाकर एक यदी जगती नभ सौरभ से भरती तो भेद मिटाकर आपस के सदभाव सृजन वह भी करती । है एक नवीन अभूषण से प्रकिती रमणी को आभूषित करती नव वर्ष को लाकर दूसर भी नव-चेतन चित्त उमन्गित करती । गुलाल अबीर युवा युवती मधुमास में मत्त उड़ावत क्या , इस पर्ब महान मनावन हेतु बसन्त उद्यान सजावत या ? प्रेमी को प्रेम में , गोरी को रंग में , भोरे को भंग में कौन डुबावत , कौन यहाँ जो भला सबको पुनि लाज भुलाय के नाच नचावत ?   “ रंग चलाय रंग्यो हमको फिर भंग के रंग पिलाय चढ़ायो , तिरझे करि नैन हमें निज रूप के तीसर रंग म नाहिं दुबाओ , अब चाल के रंग बताय हमें रिसियाव नहीं चित को दुख दैके ,” भाँति यही कर ज़ोरी कहे कोई रूठी प्रिये केरे सम्मुख होइके । कोई कहे : “ यदि रंग लगाऊं तो आज बुरा नहीं मानव गोरी शर्म को दूरि धरौ हमसे औ रंग चलाय कहव ‘ है होरी ’ !” दूई चारि कहूँ रमणी मिलि के एक सीध सुबोध ...