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Showing posts from July 12, 2015

एक हो जाएँ अगर

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“ एक हो जायें अगर ” शीर्षक बाल-कविता की रचना मैने 08 जूलाई , 1988 को की थी | प्रारम्भ में मैने इसे “ सहयोगी पिपीलिका ” के नाम से लिखा था | नव-भारत , रायपुर के तत्कालीन साहित्यिक अंक के संपादक श्री गिरीश पंकज जी ने इसका नाम बदलकर “ एक हो जाएँ अगर ” कर दिया और 'बच्चों की फुलवारी' में दिनांक 24  जूलाई , 1988 को प्रकाशित कर दिया |   पड़ा हुआ गेहूँ का दाना देख के चींटी ललचाई | उसे उठाना चाही लेकिन तनिक हिला भी न पाई | कुछ सोचा फिर वापस लौटी आयी अपने देश को , उस दाने के बारे में झट बता दिया हर एक को | पलक झपकते भर में , बच्चो , सत सैनिक तैयार हुए , उस दाने को ढो लाने का अटल इरादा ठान लिये | अनुशासन के प्रेमी सारे पंक्तिवद्ध फिर निकल पड़े | कई एक हो जाएं एक तो कौन काम बिन हुआ रहे | चारों ओर से पकड़ा उसको एक ओर पर ज़ोर दिया – ऐसे एक मती जीवों नें उसे खींचना शुरू किया | सफल हुए लाने में उसको डाल दिया गोदाम में | आपस में थे सबके सब सहयोगी सबके काम में | एक दूसरे की सहायता के प्रति तत्पर रहना है | उन्नति के सौ-सौ द

सच्चा वीर

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“ सच्चा वीर ” शीर्षक कविता मैने 02 सितम्बर , 1988 को विशेषतः बच्चों के लिए लिखा था | रायपुर जो अब छत्तीसगढ़ की राजधानी है वहाँ के दैनिक देशबन्धु ने अपने बाल अंक में इसे दिनांक 09 अक्टूबर 1988 को प्रकाशित किया था | एक घने जंगल में हिंसक एक भेड़िया रहता था | लोफर दोस्त सियारों को संग लिए घूमता फिरता था | वन प्राणी सारे के सारे उसे देख डर जाते थे , जल्दी-जल्दी भाग घरों में वे अपने घुस जाते थे | सिंह बाघ भी उसके मुँह न लगना उचित समझते थे | सभ्य और गंभीर सदा वे उससे हटकर रहते थे | इतना था वह ढीठ कि खुद को सबका राजा कहता था | जब तब भोले भालों को बेवजह सताता रहता था | किसी शत्रु ने इन्हीं दिनों जंगल पर दिया चढ़ाई कर | इस कुसमय में वीरों को था चलना शीघ्र लड़ाई पर | पर क्या था डरपोक भेड़िया भागा साथ सियारों के | ऐसे मौके पर ही दिखते असली रूप कायरों के | देश-भक्त वनराज शेर फिर सेना लेकर निकल पड़े | खूब बहादुरी से लड़कर दुश्मन के छक्के छुड़ा दिए | सच्चा वीर वीरता अपनी केवल तभी दिखाता है , देश सुरक्षा या जन-हित पर

सरस्वती बँदना

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मेरे जीवन की पहली प्रतिष्ठित कविता ‘ सरस्वती बँदना ’ है जिसको मैने सन 1980 में लिखा था | उस समय मैं हाई स्कूल का विद्यार्थी था | ज्ञान भानु ज्योति को प्रसार दिशि-दिशि माँहि बुद्धि कंज बृंद के अधर की विकासिनी, स्वर्ग के गगन के असंख्य दुतिंमान सुर तारकों के बीच श्वेत शशि सी सुहावनी, श्वेत हंस वाहिनी धवल वस्त्र धारिणी वीणा वर वादिनी नवीनता निखारिनी, बँदना करत जग ज्ञान पुंज धारी होत पद बन्दता हूँ सोई तेरे पदमासिनी | कीर्ति गंधवाहिनी अरूपता अनिल की सी सुचिता सलिल बुद्धि अग्नि की प्रखरता शब्द गुण मय पन्च तत्व के स्वरूप वारी भारती नमन करूँ हर मेरी जड़ता | -           रमेश चंद्र तिवारी

सच या क्या वह सपना था ?

नायिका से दूर नायक की मनः स्थिति को चित्रित करती हुई इस कविता की रचना मैने 15 मई , 1988 को की थी | कभी दौड़ता रुकता चलता कभी बैठ क्यों जाता है ? हँसता कभी विहँसता क्यों मदमस्त हुआ क्यों जाता है ? मन ही मन तू बातें करता बुनता गुनता तू क्या है ? निशा ने पूछा, 'पगले वायू, हुआ आज तुझको क्या है ? मन्द-मन्द मुस्कान बताती तू कुछ छिपा रहा है | पवन बता क्या प्रिया पुष्प का तेरा मिलन हुआ है |' प्रतिउत्तर में कुछ कहकर दीवाना वह भग जाता था , झूम-झूम औ घूम-घूम सर-सर करके इतरता था | ऐसे में वह सोया था क्षणदा के आँचल को ढक के | परी लोक में खोया था निद्रा मदिरा को पी करके | सहसा एक आगंतुक के आने का आहट हुआ उसे | दबे पाँव से खोज रही न जाने थी वह वहाँ किसे | इधर-उधर कुछ देखा ढूँढा अन्त में आई उसके पास | आलिंगन कर सौप दिया फिर अपना सब कुछ उसके हाथ | पलकें बंद किए लेटी स्तब्ध शांत हो सोई थी | सोई क्या थी उसे पता था वह तो उसमें खोई थी | प्रथम बार था उसने देखा जनागमन का अमिट द्वार | स्वागत करने हेतु बुलाता उस