एक हो जाएँ अगर
“ एक हो जायें अगर ” शीर्षक बाल-कविता की रचना मैने 08 जूलाई , 1988 को की थी | प्रारम्भ में मैने इसे “ सहयोगी पिपीलिका ” के नाम से लिखा था | नव-भारत , रायपुर के तत्कालीन साहित्यिक अंक के संपादक श्री गिरीश पंकज जी ने इसका नाम बदलकर “ एक हो जाएँ अगर ” कर दिया और 'बच्चों की फुलवारी' में दिनांक 24 जूलाई , 1988 को प्रकाशित कर दिया | पड़ा हुआ गेहूँ का दाना देख के चींटी ललचाई | उसे उठाना चाही लेकिन तनिक हिला भी न पाई | कुछ सोचा फिर वापस लौटी आयी अपने देश को , उस दाने के बारे में झट बता दिया हर एक को | पलक झपकते भर में , बच्चो , सत सैनिक तैयार हुए , उस दाने को ढो लाने का अटल इरादा ठान लिये | अनुशासन के प्रेमी सारे पंक्तिवद्ध फिर निकल पड़े | कई एक हो जाएं एक तो कौन काम बिन हुआ रहे | चारों ओर से पकड़ा उसको एक ओर पर ज़ोर दिया – ऐसे एक मती जीवों नें उसे खींचना शुरू किया | सफल हुए लाने में उसको डाल दिया गोदाम में | आपस में थे सबके सब सहयोगी सबके काम में | एक दूसरे की सहायता के प्रति तत्पर रहना है | उन्नति के सौ-सौ ...