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खल मंडली बसहु दिनु राती

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  खल मंडली बसहु दिनु राती। सखा धरम निबहइ केहि भाँती॥ मैं जानउँ तुम्हारि सब रीती। अति नय निपुन न भाव अनीती॥ प्रभु श्री राम जी कहते हैं, हे लंकापति विभीषण जहाँ रात दिन दुष्ट ही दुष्ट रहते हैं ऐसे स्थान पर मेरे साथ मित्रता का निर्वहन कैसे संभव हो सका, जबकि मैं आपके आचार विचार से परिचित हूँ कि आप परम नीतिज्ञ हैं और आपमें अनीति के लेशमात्र भी भाव नहीं हैं । बरु भल बास नरक कर ताता। दुष्ट संग जनि देइ बिधाता॥ अब पद देखि कुसल रघुराया। जौं तुम्ह कीन्हि जानि जन दाया॥ यहाँ श्री रघुनाथ भक्त विभीषण जी उत्तर देते हैं, हे तात, चाहे नरक में निवास करना पड़े वह अच्छा है किन्तु ईश्वर कभी दुष्ट की संगत न दे । आपने मुझे अपना सेवक समझ कर मुझ पर दया की है परिणामस्वरूप, आपके चरणों के दर्शन करके ही मुझे सुख प्राप्त हुआ है इसके पूर्व मैं सकुशल जीवन नहीं जी सका । दुष्ट ही दुष्ट के साथ प्रसन्न रह सकता है  ।