Wednesday 2 September 2015

व्यग्र व्यथा के बादल

इस छोटी सी कविता को मैने 18 अप्रैल, 1988 को लिखा था तथा आकाशवाणी रायपुर (अब छत्तीसगढ़ की राजधानी) ने अपने युगवाणी कार्यक्रम में इसे 31 अगस्त, 1988 को सायं 5.05 पर प्रसारित किया था |

मानस अम्बर में घिरे हुए ये व्यग्र व्यथा के बादल
से घोर घटा छा आई है जैसे रजनी का आँचल।

रह-रह कर कौंध रही है स्मृति की तीखी विजली
क्षण-क्षण निशा दिवस वैसी छटती घिरती कजरी।

है घोर गर्जना करता यह निराश मन हारा
प्रतिध्वनि से फिर कँपता है हृदय शून्य भी सारा।

उत्कंठा आती है बन तीब्र पवन की आँधी
आशाएँ थमती ऐसे ज़ंजीरों में हों बाँधी।

ये घनी वेदना के घन अविरल घिरते रहते हैं
चित्त में रह-रह भारी वर्षात प्रेम की करते हैं।

वही नीर वह करके इन दृग द्वारों से गिरते
आर्द्र श्याम अलकों को करने को आतुर रहते।

बस आ जा इन बाहों में सावन आभास कराऊँ
पल-पल कैसे बीते हैं की मीठी कथा सुनाऊं।।



-              रमेश चंद्र तिवारी

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