राह मिल न सकी
इस गीत को मैने 25 अगस्त, 2010 को लिखना
प्रारम्भ किया था | उस
दिन मैने दो पद्य लिखकर छोड़ दिए थे । आज रविवार, 13
सितम्बर 2015 को संयोग से वह पूरा हुआ है ।
राह
मिल न सकी
मैं
भटकता रहा बादलों
की तरह ।
छाँव
भी थी वहाँ,
पेड़
झुर्मुट भी थे,
फिर
भी भुनता रहा पत्थरों की तरह ।
नदियाँ
भी थीं,
नद
सरोवर भी थे,
फिर
भी प्यासा रहा नभ-खगों की तरह ।
राह
मिल न सकी
मैं
भटकता रहा बादलों
की तरह ।
एक अपना यहाँ,
एक
सपना वहाँ,
द्वंद
के बीच में चीखता ही रहा ।
हाथ
खोले हुए
बाग
फूलों के थे,
गीत
रेतों की खाई में गाता रहा ।
राह मिल
न सकी
मैं
भटकता रहा बादलों
की तरह ।
गिरता
रहा,
फिर
संभलता रहा,
कंकड़ों
की डगर किंतु चलता रहा ।
खिलखिलाते
रहे
वे
सितारे सभी,
भोर
तारा अलग टिमटिमाता रहा ।
मैं
भटकता रहा बादलों
की तरह ।
अब
किनारा यहीं
बस निकट
है कहीं,
लक्ष्य
निश्चित हुए बिन सफ़र कट गया ।
कितनी
वर्षा करो
तप्त
मानस पे तुम,
लौ
बुझेगी नहीं जो जली है सदा ।
राह मिल
न सकी
मैं
भटकता रहा बादलों
की तरह ।
-
रमेश चन्द्र तिवारी
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