Monday 14 September 2015

हमको आगे बढ़ना है

इस कविता को मैने 05 अगस्त सन 1988 को लिखा था |

हम हैं आकुल बढ़ने को मत रोको हमें भागने दो
देखो लोग बहुत हैं आगे हमको वहीं पहुँचने दो

रहने दो अब बहुत हो चुका बहुत विराम किए अब तक
धिम्मड़ और फिसड्डी बनकर और जियेंगे हम कब तक

नहीं लेंगे शिक्षा जाओ काहिलपन का ज्ञान न दो
बार-बार संतोष सिखाकर हमें निष्क्रिय न कर दो

रख लो अपने पास पुराना कालातीत धर्म अपना
स्वयं कथाएँ कह सुन करके देखो तुम ही सुख सपना

मज़हब जीवन की पद्ध्यति है और नहीं वह कुछ करता
स्वर्ग नर्क का भय पैदाकर केवल अनुशासित करता ।

परिवर्तन से बचा नहीं है वस्तु कोई सारे जग में
धर्म निहित क्या नियम समझते नहीं बदलते हैं उसमें ?

लाओ सारे पंथ दिखाओ संशोधन उसमें कर दूं
उन्नति नाम आज से प्यारा लाओ उनका मैं रख दूं ।

सतत अग्रगामी रहना उत्साह बढ़ाते ही जाना
एक पंक्ति भर सकती पूरा उसके पालन का खाना

जाती वर्ग के भेद लिखे हैं उसे काट डालूं लाओ
भारतीय बस लिखूं वहाँ पर सिंधु बूँद में ही पाओ

देव फरिस्तो का होगा जिस जगह विशद मिथ्या वर्णन
वहाँ लिखेंगे देश देवता उसका ही होगा पूजन

ईश्वर होता मान रहा हूँ पर दस बीस ग़लत लगता
चमचागीरी लोगों की क्या उसको भी है प्रिय लगता

हर पिता चाहता उसका बेटा प्रगति सिखर पर चढ़ जावे
कैसे सोंचा प्रगति हमारे परम पिता को न भावे

कितना लंबा बांधो क्यो न पुल तारीफ़ ईश के तुम
पर वह खुशी होयगा केवल तेरी कर्मठता को सुन

अब तो हम वह गति लाएँगे सर्वोपरि बन जाएँगे
साथ हमारा करते-करते बड़े-बड़े थक जाएँगे

भारत, भारत नाम जपेंगे भारत वाले प्रिय होंगे
जब हम उसे तरक्की देंगे खुराफात सब भूलेंगे

अनुउपयोगी घिसी मान्यता मान नहीं अब चलना है
नये मूल्य तकनीक नवल से हमको आगे बढ़ना है

-              रमेश चन्द्र तिवारी

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