जीवन सरिता
‘जीवन सरिता’ शीर्षक गीत मैने 19 मार्च 1988 को लिखा था | संसार में प्राणियों का जीवन
सरिता की तरह शतत कैसे प्रवाहित रहता है उसका वर्णन करते हुए यह गीत बहुत ही मधुर
है |
सरिता में सरिता का संगम
कई एक मिलती रहतीं |
एक प्रबल धारा बनकर
सब एक साथ बहती रहतीं |
जीवन धारा इसी तरह यदि
तो – मैं भी क्यों न बहूँ !
आ जा मेरे पास एक में मिलकर क्यों न चलूं !
खेत, बाग, वन सिंचित
करती
कुछ दूरी तक बहती है |
आगे चलकर सागर में
अस्तित्व शून्य भी करती है |
विलय अंत जीवन का होता
क्यों एकाकी विलय करूँ !
आ जा मिलकर साथ-साथ में अपना अंत करूँ !
नहीं, नहीं सागर में नदियाँ
लुप्त नहीं होती हैं,
बादल बनकर पुनः वे अपना
पूर्व रूप ले लेतीं हैं |
पुनर्जनम जीवन का होता
तो मैं ही क्यों जनमूँ !
आ जा मिलकर साथ-साथ में जग में फिर लौटूं !
-
रमेश चंद्र तिवारी
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