बसंत शुभागमन गीत
इस गीत को मैने फरवरी 1988 में
लिखा था | उन दिनों मैं छत्तीसगढ़ की राजधानी
रायपुर में रह रहा था | नव-भारत रायपुर
के तत्कालीन संपादक श्री गिरीश पंकज जी ने मेरी इस कविता को बसंत परिशिष्ट में 28 फरवरी 1988 को प्रकाशित किया था |यह
मेरी पहली प्रकाशित कविता है |
प्रकृति व्यस्त इतना
क्यों है निज रूप सुसज्जित करने में ?
कुछ नई कला को
प्रस्तुत करना चाह रही क्या है मन में ?
वन, बाग, सरोवर, खेत सभी फूलों
के वैभव से लिपटे,
अपने धुन में अपने गुण
की वे डींग मारते ही मिलते |
झुककर कुसुम पवन से
कहती रुक ! तू कहाँ को जाता है ?
मेरी मादकता की चोरी
कर क्यों, तू मस्ती फैलता है !
सर-सर ध्वनि से चपल
वायु भी मुड़कर उत्तर देता यूँ,
मैं तो तेरे गुण
विखेरकर प्रसनसनीय तुझको करता हूँ |
मधुर स्वरों से कोयल
कुऊँ-कुऊँ कर उड़ती इठलाती है,
किसके आने का हर्ष इसे
जो पत्तों से इतराती है ?
मधूप बृंद भी गुन-गुन करके
मत्त दशा व्यंजित करते,
कारण नहीं समझ आता
किसलिए सभी पगले लगते ?
सजकर नवल पत्र, फूलों से तरु ऐसे क्यों झूम रहे,
हिल-हिल कर ये इधर उधर हैं आपस में मुख चूम रहे ?
नये वस्त्र आभूषण पहने
दिशा सुंदरी लगती ऐसी
अभिनंदन के हेतु किसी
के द्वार खड़ी बाला
जैसी |
नीलवर्ण अति स्वक्ष
लगा क्यों यह वितान क्षिति अंबर का,
स्वागत किसका है इसमें
नाम भला है क्या उसका ?
अरे | अनोखी भूल हुई
पहिचान सका न मैं उसको,
प्रिय सबका ‘बसंत’ आया आश रही
जिसकी सबको !
री भोली ! मैं समझ गया
श्रिगार कर रही है तू क्यों,
प्रिय ऋतु-राज मिलन की
इक्षा लीन बनाए तुझको यों |
- रमेश चन्द्र तिवारी
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