रंग वर्षे
इस होली-गीत को मैने
४ फ़रवरी, १९८८ को लिखा था ।
अंग में बिरन्गि रंग सखिन के संग-संग, यौवन मतन्ग मह कहाँ भागी जाती हो,
हर्षि- हर्षि कछु कहत सुनत नाहि, इत-उत
दौरि-दौरि रंग वर्षाती हो ?
कबहुँ चपल नेत दुइ मटकाई के, बीथि के युवक
मन चोरि लै जाती हो,
मन्द-मन्द नटि कटितट लचकाई के, बाण लै अनन्ग
कै शिकार करि जाती हो ?
यौवन के ज़ोर में हो छाती थिरकाती मनु, सागर उफान
देखि इन्हें लाज खाती हो,
गाल पे गुलाल को लगाय मोरे आज गोरी, हमहि बताओ
लोक लाज क्यों भुलाती हो ?
दिशि-दिशि रंग औ अबीर के बसन्त मह, गोरी तेरो
रूप मह होरी दिखलाती है,
मून्दि नहि जात आँख तेरहु सिंगार देखि, तेरी मुस्कान
मेरो मन तरसाती है ।
लाली तेरी चूनरी औ ओढनी भी लाल है, गोरे कुच
बीचि लाल रंग ढरकत है,
लाल-लाल होठ आह गाल पे गुलाब तेरे, तेरी हर सौंह
पर मन मचलत है !
ऐते सोंच-सोंच निज रंग को छिपाय धरि, डूब तेरे रंग
में अनन्द हम होत हैं,
रहयो तेरो संग में खेलन रंग ढंग से, तेरो चढ़ि मो
पर तुमहि हम होत हैं ।
-
रमेश चन्द्र तिवारी
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