होली

इस कविता को मैने १७ फ़रवरी, १९८८ को लिखा था


ऋतुराज के आवन की सुधि कोकिल गीत की गूँज दिलावति जैसे
रंग भरी पिचकारी बतावत होली नहीं अब दूर है वैसे

फूल खिलाकर एक यदी जगती नभ सौरभ से भरती
तो भेद मिटाकर आपस के सदभाव सृजन वह भी करती

है एक नवीन अभूषण से प्रकिती रमणी को आभूषित करती
नव वर्ष को लाकर दूसर भी नव-चेतन चित्त उमन्गित करती

गुलाल अबीर युवा युवती मधुमास में मत्त उड़ावत क्या,
इस पर्ब महान मनावन हेतु बसन्त उद्यान सजावत या ?

प्रेमी को प्रेम में, गोरी को रंग में, भोरे को भंग में कौन डुबावत,
कौन यहाँ जो भला सबको पुनि लाज भुलाय के नाच नचावत ? 

रंग चलाय रंग्यो हमको फिर भंग के रंग पिलाय चढ़ायो,
तिरझे करि नैन हमें निज रूप के तीसर रंग म नाहिं दुबाओ,

अब चाल के रंग बताय हमें रिसियाव नहीं चित को दुख दैके,”
भाँति यही कर ज़ोरी कहे कोई रूठी प्रिये केरे सम्मुख होइके

कोई कहे: यदि रंग लगाऊं तो आज बुरा नहीं मानव गोरी
शर्म को दूरि धरौ हमसे औ रंग चलाय कहव है होरी’ !”

दूई चारि कहूँ रमणी मिलि के एक सीध सुबोध को घेरि लजावें,
कबहूँ हंसिके पुचकारि कबौ वहिके हर अंग में रंग लगावें

भगती बचती प्रियसी को कोऊ हैं खेदत हाथ अबीर को लैके,
रुक जाव मैं रंग लगाऊँ नहीं फुसलवान चाहत झूठ को कहिके

कौन वही जेहि हेतु सभी हैं प्यार बाहर में पागल ऐसे,
होली कहें या बसन्त के कारण लोग है लोक के नाचत जैसे ?

-          रमेश चन्द्र तिवारी

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