Tuesday 14 February 2017

राजनीतिक पार्टियाँ

प्राचीन समय में लोग अपने अपने कबूतरों को रंग कर रखते थे | आज राजनीतिक पार्टियाँ अपने अपने समर्थकों को धर्मनिरपेक्षता, सांप्रदायिकता, जातीयता आदि रंगों से लगातार रंगती रहती है ताकि वे किसी दूसरे के आँगन में न उतर जाएँ |

किसी ने कहा कि राजनीतिक पार्टियाँ एक दूसरे के खिलाफ ऐसा आग उगलती हैं कि मानों वे उनके जन्म-जन्मान्तर के दुश्मन हों | मैने कहा कोई एक दूसरे का दुश्मन नहीं है - आपको ऐसा लगता है | सच कहिए, ये सभी जनता के दुश्मन हैं, या उसकी कमज़ोरी का लाभ उठाने वाले लोग हैं |

सारी राजनीतिक पार्टियाँ संयुक्त रूप में एक ड्रामा कम्पनी हैं | इसमें हर एक के रोल आपस में पूर्व निर्धारित हैं | कोई धर्म निरपेक्षता का किरदार निभा रहा है तो कोई हिंदूवादी या मुस्लिमवादी का | कोई इस जाति के मसीहा का डायलाग याद किए है तो कोई उस जाति के | कोई आम आदमी के मेकअप में खास आदमी के खिलाफ मंच तोड़ रहा है तो कोई सान्ता के लिबास में घर-घर उपहार बाटने की अदाकारी कर रहा है | इसमें कुछ ऐसे कुशल अदाकार भी हैं जो समय-समय पर हर तरह के पात्रों की भूमिका निभाते रहते हैं | जो भी हो, इस कंपनी का अंतिम उद्देश्य दर्शकों को आकर्षित करना है और गीतों और भावभंगिमा के माध्यम से उनकी भावनाओं को गहराई से उद्देलित करके उन्हें संवेदनाओं के नशे में धुत कर देना होता है ताकि वे समझ न सकें कि उन्होने कितना इनाम उन पर निछावर कर दिया है | जैसे मुज़रा का शौक करने वाला व्यक्ति अंततः सड़क पर आ जाता है आज उसी तरह राजनीतिक कोठे की चौखट पर भारतीय जनता अपना सब कुछ गवाँ कर असहाय पड़ी है

दुख है, सारी पार्टियों के नेताओं की आपसी मोहब्बत देखकर भी जनता इनके बयानों को सही मानती है और आपस में बटती है | अरे भाई, जैसे सारी पार्टियों के नेता एक हैं यदि सारी जनता एक हो जाय तो नेताओं द्वारा लूट कब का नहीं समाप्त हो जाय | कुल मिलाकर, दिन प्रतिदिन हमारा प्रजातंत्र शातिर होते जा रहा है और इसका इलाज़ शिर्फ जनता के पास ही है |

जंगल का शासक कौन होता है ? वही जिससे अन्य सभी भयभीत होते हैं | यही नियम मानव समाज के लिए भी लागू होता है | शक्ति दो रूपों में होती है: बाहुबल और बुद्धिबल | फिर भी ये दोनों धनबल के गुलाम हैं | सत्ता से धनबल को दूर रखने के लिए या उसमें आम व्यक्ति की भागीदारी हेतु प्रजातंत्र का अविष्कार किया गया | अब जब प्रजातंत्र की मूल भावना ही समाप्त हो गई है, तो किस बात का प्रजातंत्र ? यह सब ऐसा इसलिए होता चला जा रहा है क्योंकि समय-समय पर चुनाव प्रणाली में संशोधन नहीं किए गये | विडम्बना यह है कि इस संशोधन को भी वही कर सकते हैं जो इसके लाभार्थी हैं और परिणाम स्वरूप केवल कुछ लोग ही या उनकी अगली पीढ़ी ही घूम फिर कर सत्ता पर काबिज है | प्रजातंत्र केवल तब तक है जब तक सत्ता स्वतंत्र है | यदि वह शाही महलों में क़ैद है तो आम जनता के लिए फिर क्या बचा ? वही कि दूब की तरह वह उगती रहे ताकि दुर्योधन, दुस्सासन या शिशुपाल उसे नोच-नोच कर खाएँ और अपने अहंकार की भूख मिटाने के लिए जितना चाहें अत्याचार करें |

No comments:

Post a Comment