गणतंत्र दिवस
मंज़िल वही पहुचते हैं जो अपने बल पर चलते हैं,
कायर और फिसड्डी केवल भाग्य कोसते रहते हैं |
मैदान बुलाने जाता है क्या आकर उस पर खेलो ?
अगर खेलना है तुमको तो आगे बढ़कर देखो |
मैदान वही है, देश वही है, लोग जीतते तुम भी जीतो,
हाथ पकड़कर तुम्हें जिताना क्यों चाहेगा कोई सोचो |
हार-हार कर बार-बार क्या टाँग खीचकर जीतोगे ?
घृणा अग्नि से पौरुष के पौधों को कैसे सीचोगे ?
हर एक पितामह के सीने में देश प्रेम की ज्वाला थी,
हर एक हृदय में आज़ादी के सपनों की वरमाला थीं |
कौड़ी की कीमत में बिकने प्राणों के तब ढेर लगे थे,
सूखी नदियों में बहने को रक्त श्रोत सब उफन पड़े थे |
नहीं कभी सोचा था उनने भावी भारत क्या होगा –
अपनी ही ज़ंजीरों में वह बुरी तरह जकड़ा होगा !
खींचा-खांची, नोचा-नोची, वही तमाशा, वही हताशा,
वही ईर्ष्या, आस मुफ़्त की, घर भरने की वही पिपासा !
प्रबल द्वेष में दिखने लगता प्यार बुरी नज़रों में |
भारत माँ के लाल सिपाही हैं, गोली हैं बन्दूखो में,
तुम्हें याद 'अधिकार' रहेगा केवल तब तक, भूलो मत !
फिर 'कर्तब्य' निचोड़ेगा रग-रग, कस-कस अंतिम साँसों तक |
गणतंत्र दिवस एक राष्ट्र-पर्व है: मात्र पर्व है ? नहीं, नहीं !
यह आँख खोलने आया है, देखो ! कुछ तो है जो सही नहीं |
- रमेश तिवारी
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