सपूत हम बनें

इन ऊर्जा भरी पंक्तियों को मैने 1 मई 1988 को लिखा था |

गतिमान अपने देश को गति व सपन्थ दें
खिलते हुए गुलाब को आ कीर्ति गंध दें

शक्तिमान हिंद को शाक्ती महान दें
चलते हुए जहाज़ को आ लक्ष्य ज्ञान दें

आन दें औ मान दें सीने में शान दें
मौका लगे तो और क्या जी और जान दें

कर्मठ सशक्त बाँह से हम भाग्य फेर दें
धन-धान्य से लदे हुए बादल को घेर दें

इंसानियत का मुल्क में एक चित्र खींच दें
अपनत्व प्रेम भाव के रंगों को छीट दें

दिल- दिल या हर दिमाग़ में संकल्प डाल दें
नेतृत्व भाव की सदा आदत को ढाल लें

निर्बल बनाए बाँह तो उसको भी काट दें
उगले जो भेद-भाव ऐसे मुख को पाट दें

एक साथ एक ओर हम बढ़े चलें
न हम कभी झुकें कभी न हम कहीं रुकें

आग उगलती हुई ज्वालमुखी बने
आनन प्रचंड काल का मिल हम सभी बनें

विश्व काँप जाय वो हुंकार हम बनें
गीदड़ बनाएँ शत्रु को वह शेर हम बनें

साथ-साथ शांति का प्रतीक हम बनें
कंठ सूखते हुए का नीर हम बनें

हर हृदय में प्रेम का स्वरूप हम बनें
हिंदू न हम बने न मुसलमान हम बनें

न सिख हम बनें न ईसाई कभी बनें
महान अपनी मातृ के सपूत हम बने

-              रमेश चंद्र तिवारी

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