महाराजा सुहेलदेव

देश में दीमक थे दीमक तो अब भी हैं
पहले के गेरुए अब लाल, हरे, भूरे हैं।
खाते हैं फल फूल काटते जड़ों को किन्तु,
दीमकों के दांत आज और भी नुकीले हैं।

खोद कर खोखला किया था देश देशी थे,
धन उनने गजनी को इज्जत भी सौंपे थे।
भारत भयानक वहीँ एक और भारी था,
कुत्तों को काटा था ज्यों ही वे भौंके थे।

तेंदुओं की सक्क सक्क करती तलवारें थीं,
सेना भयानक थी भारत के भेड़ियों की।
सन्न-सन्न तीरों से थे सन्न सारे सुन्नती,
झुण्ड-झुण्ड जा रहे थे जन्नत को जन्नती।

गिरते थे मुण्ड मानों आंधी के आम हों,
जिस ओर शूल हो सुहेल का कमान हो।
काटी थी चोटियां जिनने तोड़े जनेव थे,
हाथ-पाँव काटे उनके राजा सुहेल ने।

ओले की मार से परिंदे परसरते जैसे
बकरों की शक्ल वाले सैनिक पसर गए।
क्रूर कुद्दरूप दैत्य सैयद मसूद हुआ
सम्मुख सुहेल के तो हाथ-पैर फूल गए।

भूल गया तीर भाला भूला तलवार भी
बिजली सी गर्जना सुहेल की ललकार थी।
घोडा घुमाया सालार ने खलार पर,
भागा भयभीत कोई सिंह से हिरन हो।

तीर अर्धचन्द्र शेर हिन्द की कमान से,
चीरता अनंत मानो लेजर किरण हो।
गर्दन उड़ाया दैत्य मुण्ड गिरा झील में,
जय जय सुहेल गूंजा चित्तौरा नील में।
                -कवि रमेश चन्द्र तिवारी 9451673412
                 Sunday, 02 February 2025


महमूद के सेनापति सालार साहू ने अजमेर और आसपास के क्षेत्रों के हिंदू शासकों को हराया। इनाम के तौर पर महमूद ने अपनी बहन की शादी सालार साहू से कर दी । अतः मसूद गाजी महमूद गजनवी का भांजा था। सैय्यद सालार मसूद का जन्म 10 फरवरी 1014 ई. को अजमेर में हुआ था ।

बचपन में ही मसूद सैन्य नेतृत्व में दक्ष हो चूका था। उसने अपने मामा महमूद के अभियानों में भाग लेना प्रारम्भ कर दिया था। सैन्य और धार्मिक उत्साह से प्रेरित होकर, मसूद ने ग़ज़नवी सम्राट से भारत में मार्च करने और वहाँ अपना साम्राज्य और इस्लाम फैलाने की अनुमति माँगी। 16 वर्ष की आयु में, उसने सिंधु नदी को पार करके भारत पर आक्रमण किया । उसने मुल्तान पर विजय प्राप्त की, और अपने अभियान के 18वें महीने में, वह दिल्ली के पास पहुँचा। गजनी से मिले सुदृढीकरण की मदद से , उसने दिल्ली पर विजय प्राप्त की और 6 महीने तक वहाँ रहा। फिर उसने कुछ प्रतिरोध के बाद मेरठ पर विजय प्राप्त की। इसके बाद, वह कन्नौज चला गया , जिसके शासक ने उसे मित्र के रूप में स्वीकार किया। मसूद ने सतरिख में अपना मुख्यालय स्थापित किया और बहराइच , गोपामऊ और बनारस पर कब्ज़ा करने के लिए अलग-अलग सेनाएँ भेजीं। मसूद के पिता सैयद सालार साहू गाजी के नेतृत्व में सैयद सैफ-उद-दीन और मियाँ राजब बहराइच भेजे गए। बहराइच के स्थानीय हिंदू राजाओं ने एक संघ का गठन किया किन्तु सैयद सालार साहू की सेना से वे हार गए। इसी बीच मसूद के पिता सालार साहू की मृत्यु 4 अक्टूबर 1032 को सतरिख में हो गई। यहां भी एक मजार है। उधर बहराइच के हारे हुए राजाओं ने उत्पात मचाना फिर भी जारी रखा तो सन् 1033 में मसूद खुद बहराइच आया और उनमें से हर एक को हरा कर शांत कर दिया। यहां उसने एक पवित्र जलाशय के पास सूर्य देवता के एक मंदिर के खंडहर देखे। वह मंदिर को नष्ट करके एक मस्जिद बनाना चाहता था और वहीँ रहना भी चाहता था। किन्तु जब उसकी सेना श्रावस्ती की ओर बढ़ी तो उसकी सुहेलदेव की सेना से सामना हुआ। सुहेलदेव श्रावस्ती के राजा के सबसे बड़े पुत्र थे। महमूद गजनवी ने सोमनाथ मंदिर को लूटा था और तोड़फोड़ सहित उपद्रव किया था। इसकी वजह से महाराजा पहले से ही क्षुब्ध और आक्रोशित थे। उन्होंने थारू और बनजारा बहादुरों की एक सशक्त सेना संगठित कर ली थी। 15 जून 1034 को सुहेलदेव की गुरिल्ला युद्ध में ग़ज़नवी सेनापति सैयद सालार मसूद गाजी पराजित हुआ और चित्तौरा झील के किनारे महाराजा ने अर्ध चंद्र वाण से उसका सर उड़ा दिया जो झील में जा गिरा। झील टेढ़ी नदी का उद्गम स्थल है। यहाँ कार्तिक पूर्णिमा और बसंत पंचमी को मेला लगता है। यहां मुनि श्रेष्ठ अष्टावक्र का आश्रम हुआ करता था। अब माँ दुर्गा मंदिर में महाराजा की मूर्ती स्थापित है। एक युद्ध में सहीद होने की वजह से उसको गाजी (धार्मिक योद्धा) की उपाधि प्राप्त हुई। 1246 से 1266 तक नसीरुद्दीन महमूद दिल्ली सल्तनत का सुल्तान था। उसी ने सूर्य मंदिर पर मसूद गाजी की मजार बनवाई थी। इतिहासकार बताते हैं कि वहां महाराजा सुहेलदेव के गुरु बालार्क ऋषि का आश्रम हुआ करता था। यह बाले मियां की मजार के नाम से चर्चित हुआ किन्तु लगातार देश के कोने-कोने से आने वाले दोनों हिंदू-मुस्लिम समुदाय के लोगों द्वारा मत्था टेकने से मजार की मान्यता दरगाह के रूप में हो गई। हर साल मई में यहाँ एक मशहूर मेला लगता है, उर्स मनाया जाता है। बाराबंकी की दरगाह देवा शरीफ से गाजी मियां की बारात आने के साथ इस मेले शुरुवात होती है। फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ के द्वारा उसे दरगाह में बदल दिया गया।

अजमेर से चिश्तिया सिलसिले की शुरुआत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती ने की। अजमेर से ही सैयद सालार मसूद गाजी का इतिहास भी जुड़ा है। इस्लाम के उदय के साथ ही हिंदुस्तान में चिश्तिया परंपरा भी अपनी जड़ें जमा रहा था। इसी दौर में मसूद गाजी का जन्म हुआ। गाजी को चिश्तिया सिलसिले से भी जोड़ा जाता है जो तलवार की धार पर धर्म का प्रसार कर रहा था। मसूद ने वज़ीर ख्वाजा हसन मैमंडी की सलाह के विरुद्ध महमूद को सोमनाथ के मंदिर में प्रसिद्ध मूर्ति को ध्वस्त करने के लिए राजी किया था।

19वीं शताब्दी में, ब्रिटिश प्रशासक विलियम हेनरी स्लीमन मसूद के प्रति हिंदू लोगों की श्रद्धा से हतप्रभ होकर टिप्पणी की: "यह कहना अजीब है कि मुसलमान के साथ-साथ हिन्दू भी इस दरगाह में चढ़ावा चढ़ाते हैं, और इस सैन्य गुण्डे के पक्ष में प्रार्थना करते हैं, जिसकी एकमात्र दर्ज योग्यता यह है कि उसने अपने क्षेत्र पर अनियंत्रित और अकारण आक्रमण में बड़ी संख्या में हिंदुओं को नष्ट कर दिया।"

रूसी प्राच्यविद अन्ना सुवोरोवा ने नोट किया है कि मसूद के पंथ के अनुष्ठानों में कुछ स्वदेशी हिंदू प्रभाव दिखाई देते हैं। स्थानीय हिंदू मसूद को "बड़े मियाँ" (पूज्य लड़का), "बले पीर" (लड़का संत), "हठीले पीर" (अड़ियल संत), "पीर बहलिम" और "गजन दूल्हा" के रूप में पूजते थे।

16 फरवरी 2021 को, उत्तर प्रदेश के बहराइच में महाराजा सुहेलदेव स्मारक की आधारशिला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से परियोजना के लिए रखी गई थी, जिसमें महाराजा सुहेलदेव की एक घुड़सवारी प्रतिमा की स्थापना शामिल होगी। योगी आदित्यनाथ की अध्यक्षता वाली उत्तर प्रदेश सरकार ने इस दिन को सुहेलदेव की जयंती के रूप में मनाया और एक आधिकारिक नोट जारी किया, जिसमें कहा गया था, “राजा सुहेलदेव ने 1034 में हुई एक प्रसिद्ध लड़ाई में गजनवी सेनापति गाजी सैय्यद सालार मसूद से बहराइच में चित्तौरा झील के किनारे लड़ा, हराया और मार डाला था।


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