भ्रष्टाचार
मेरे दिमाग़ के ये शेर 27
फ़रवरी 1988
को पैदा हुए थे |
पीने वालों रहम करो इन
खाली बोतलों पर
ये जीते हैं सिर्फ़
तुमको जिलाने के लिए ।
दम तोड़ते वक्त मरने
वालों ने गुज़ारिश की थी
खून को जाम बनाते रहना, पीने वालों को
पिलाते रहना ।
अफ़सोस नहीं अपने सब
कुछ के पिए जाने का
अफ़सोस है कि पीते
वक्त उन्हें खाँसी नहीं आई ।
माकूल हूँ तुम सबसे
ज़्यादा पी सकते हो
और पीना बुरी बात है
भी बेहतर कह लेते हो ।
ख़ौफ़ तो है पहले से
पीने वालों की
दरिया उफन रही है बेसब्री से
नौसिख्यों की ।
धार बूँदों में बदल गई, अफ़सोस पियोगे
क्या !
अधिकतर सूखे फल गिरने
को तरस रहे हैं ।
अरमान भर पियो तो भी
गम नहीं
पर पीते यहाँ हो रहते
वहाँ क्यों ?
लोग पीते हैं बदनाम
होते हैं ।
पिए हुए को पीने वाले
बगुले,
सोचा है, क्यो अच्छे
इंसान होते है ?
पीने वाले तो नशे में
होते हैं पर कुछ मोटे क्यों होते हैं ?
खुदा जाने ये लोग हैं
कौन जो लोगों का खून पीते हैं ।
तूफान कर के पत्थरों
ने जिस्म ज़ख्मी कर दिए,
चट्टान मंगाई का आकर
गिर पड़ा मैं दब गया ।
चीखता हूँ मैं पड़ा
मुझको बुला ले ये खुदा,
अब मुझे मंजूर है
दोज़क ही मुझको बक्स दे ।
- रमेश चंद्र
तिवारी
आपका सभी आलेख और कविता उपर से देखने में तो साधारण लगते हैं लेकिन जब इसको पढते और तब हमें इसकी गहराइयों का पता चलता है,कम शब्दों में ही आप बहुत कुछ कह देते हैं.
ReplyDeletethis composition is also mind blowing.
Thank you, Suresh ji.
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