शान्ती
इस व्यंग्य रचना को मैने 17 जून 1988 को
की |
दुनिया में बढ़ती
हिंसा पर
चल रही थी बात
बड़े भैया महाशक्ति के
साथ |
हमने कहा, ‘हमारे आपके
संबंधों में
हो रहा है सुधार |’
उनने कहा, ‘पाकिस्तान को
इसलिए भेज रहे हैं हथियार |
इस तरह हमारे पास हो
रहा है जखीरा कम
और आपकी बात मानते आ
रहे हैं हम |
अब आप पड़ोसी से मिलिए
और अब उससे बात करके तो देखिए |’
‘ठीक है करेंगे,’ हमने कहा,
‘ज़रूर करेंगे –
आप हमारे मित्र हैं और
हमेशा रहेंगे |
आपको तो मालूम है
परोपकार हमारा धर्म है,
दूसरों के लिए मरमिटना
ही कर्म है |
हम धर्म, कर्म निभा रहे
हैं
आप वाली शान्ती का
मानसून बना रहे हैं |
यह दुनिया में फैलेगा
वर्षा का अथक प्रयास
करेगा
और हाँ,
चुनाव आदि का पूर्ण
नौतपा लगने दो
बची हुई शान्ती का भी
मानसून बनने दो |
इस बार एक साथ घना
बादल बनकर आएगा
हर रोज शांति वर्षाएगा
|
अंततः हम परोपकारी भी
पड़ेंगे शांत
जब हमारा हो जाएगा
देहांत |'
इतने में एक जो पीछे
बैठा था चीखा,
'हिंसा का बाप आज का
प्रजातंत्र है
लोग वेवजेह कहते हैं
बहुत आतंक है !'
- रमेश चंद्र
तिवारी
Nice composition
ReplyDeleteशीत युद्ध के साथ यह बहुत कुछ बयान करता है,जैसे - वैदेशिक रिश्ते ,जो भारत की एक अहम कड़ी रही है और प्रभावित होती रही है.
आपकी बात तो सही है लेकिन अंतिम दो पंक्तियों को क़ायदे से झाँक कर देखिए |
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