मुक्तक

इन मुक्त छन्दो को मैने 21 अक्तूबर, 1988 को लिखा था । इन मुक्तको के माध्यम से मैने देश की सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य को सामने लाने की कोशिश की है

कभी मत कहना मैं आया नहीं था बड़े अरमान लेकर,
बात अभी भी वही है, बात फिर भी तब कुछ और थी |

कितनी तस्वीरें बनाई थीं आपके खूबसूरती की,
भाप के लच्छे उठने लगे, तस्वीरें मिटती गयीं |

1-    गाँव हो या शहर हर गली हर डगर
               लोभ की नग्न वैश्या थिरक है रही ।
अब कटेगी हया बेचकर नाक क्या
नेस्तनाबूत ही नाक जब हो गयी


2-     दोष इन निर्धनो का यही क्या भला
ये सभी निष्कपट और निर्दोष हैं ?
धन कमाया जिन्होंने इन्हें लूटकर
क्या इसी हेतु ही वे बड़े लोग हैं


3-     व्यंग्य निन्दा नहीं गालियों को बको
किन्तु पैसा मिले तो सभी वेअसर
व्यक्ति ही व्यक्तियों का गला घोंटकर
बन्धु की दुर्दशा से हुआ वेखबर

4-     विवशता अरे तू अमिट शाप है
मात्र तू है वजह लोग लूटे गये !
हर दुखी-दीन से ही तुझे प्यार क्यों
क्यों धनी तव कृपा से अछूते रहे ?

5-     प्यार को सीखने का किसे वक्त है
और है तो मुदर्रिश नहीं रह गये ।
आज असली लिफाफे मिलेंगे बहुत
प्यार नकली भरे वे खुले बिक रहे

6-     दिल कभी मोम था आज पत्थर हुआ
अब पिघलना ज़रूरी नहीं रह गया ।
विन रहम दर्द की आग जलती नहीं
अश्क भी इसलिए ठंढ से जम गया

7-     इश्क खातिर मरेंगे नहीं लोग अब
मिल रहीं दिलरुबाएँ नयी रोज ही ।
चोट मजनू सहे वेवजह क्यों भला
ले रही मौज लैला कहीं और ही

8-     ग़र्ज़ गर हो गया हो रफ़ा दोस्त से
बेहिचक दोस्ती जल्द ही तोड़ लो ।
बन गया है वसूल आज का दोस्तों
फ़ायदा देखकर दोस्ती को करो

9-     सॉफ जाहिर वजह है दमन का मेरे
ढूढ़ता हूँ तसल्ली महज सब्र में ।
गार डाला पसीना बदन ऐंठ कर
भूंख तो भी लिए जा रही कब्र में

10- दामन मिला आदमी का मगर
जिंदगी है मिली एक हैवान की ।
आदमी की शकल हो गयी आम है
आदमी दिख रहा आज शैतान भी
-          रमेश चंद्र तिवारी 

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