Wednesday 15 July 2015

सच या क्या वह सपना था ?

नायिका से दूर नायक की मनः स्थिति को चित्रित करती हुई इस कविता की रचना मैने 15 मई, 1988 को की थी |

कभी दौड़ता रुकता चलता
कभी बैठ क्यों जाता है ?
हँसता कभी विहँसता क्यों
मदमस्त हुआ क्यों जाता है ?

मन ही मन तू बातें करता
बुनता गुनता तू क्या है ?
निशा ने पूछा, 'पगले वायू,
हुआ आज तुझको क्या है ?

मन्द-मन्द मुस्कान बताती
तू कुछ छिपा रहा है |
पवन बता क्या प्रिया पुष्प
का तेरा मिलन हुआ है |'

प्रतिउत्तर में कुछ कहकर
दीवाना वह भग जाता था,
झूम-झूम औ घूम-घूम
सर-सर करके इतरता था |

ऐसे में वह सोया था
क्षणदा के आँचल को ढक के |
परी लोक में खोया था
निद्रा मदिरा को पी करके |

सहसा एक आगंतुक के
आने का आहट हुआ उसे |
दबे पाँव से खोज रही
न जाने थी वह वहाँ किसे |

इधर-उधर कुछ देखा ढूँढा
अन्त में आई उसके पास |
आलिंगन कर सौप दिया फिर
अपना सब कुछ उसके हाथ |

पलकें बंद किए लेटी
स्तब्ध शांत हो सोई थी |
सोई क्या थी उसे पता था
वह तो उसमें खोई थी |

प्रथम बार था उसने देखा
जनागमन का अमिट द्वार |
स्वागत करने हेतु बुलाता
उसको था वह बारंबार |

स्वर्ग द्वार का बैभव ऐसा
धैर्य नहीं रख पाया वह
उत्तेजित हो उठा शीघ्र वह
गिरि समुद्र को ढकने को |

किन्तु अचानक शून्य मात्र ही
उसकी बाहों में आया |
उससे उसकी छीन ले गया
जाने किसने क्या पाया !

पगले, यह सब सपना था |’
पर सपना भी तो अपना था,
अपने से सपना लुप्त हुआ !
सपना था या कुछ अपना था ?'

लुटे-लूटे से बैठे- बैठे
क्या तुम सोच रहे हो ?
सच था या सपना ही, क्यों
हाथों को मसल रहे हो ?’

-          रमेश चन्द्र तिवारी

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