नल दमयन्ती
दमयन्ती प्यारी दमयन्ती
राजकुमार नल निषध देश
के राजा वीरसेन के पुत्र थे । वे बड़े ही वीर तथा सुंदर थे । राजकुमारी दमयन्ती विदर्भ नरेश भीष्मक की एकलौती पुत्री थी । वह भी बहुत ही सुन्दर व गुणवान थी । दोनों ने
एक दूसरे के सौन्दर्य की प्रशंसा सुनी और प्रेम के विरह अग्नि में जलने लगे ।
15 मई, 1988
‘कभी दौड़ता रुक-रुक चलता कभी ठहर क्यों जाता है,
कभी उमड़ता कभी घुमड़ता मतवाला क्यों
फिरता है ?
मन ही मन तू बातें करता बुनता-गुनता तू क्या है ?’
निशा ने पूछा, ‘पगले वायू, हुआ आज तुझको क्या है ?
मन्द-मन्द मुस्कान बताती तू कुछ छिपा रहा है,
पवन, बता क्या प्रिया पुष्प से तेरा मिलन हुआ है ?’
उत्तर में वह चल देता, दीवाना नटता, मुस्काता,
झूम-झूम फिर
घूम-घूम सर-सर करता इतराता ।
मादक था शीतल
मौसम जिसमें कुमार नल सोया था,
निद्रा मदिरा को पी करके वह परी लोक में
खोया था ।
सहसा एक आगंतुक के आने का आहट मिला उसे,
दबे पाँव से चली आ रही श्वेत परी एक दिखी
उसे ।
गरिमामय थी चाल परी की मुख मण्डल पर आभा
थी,
मोहक अति सुरभित
बाला वह थी रजनी की रानी सी
।
‘अरे, अरे, यह कौन आ गया !’ हुआ चकित
नल उसको देख,
‘इस रजनी में रमणी आए निश्चित इसमें है संदेह ।‘
क्या था तभी अचानक बैठी उसके ही वह ठीक
समीप,
प्रेम उमड़कर छलक रहा हो उसमें उसको हुआ
प्रतीत ।
कोमल कोमल कर से उसने जैसे ही स्पर्श किया,
रोम-रोम सब सिहरे वैसे प्राणहीन
तन वदन हुआ ।
जैसे-जैसे प्रेम ने तोड़ा लज्जा की
दीवारों को,
वैसे ही वह निकट से करती स्नेहिल व्यवहारों को ।
धीरे-धीरे परी ने उसको बसन परों में छिपा
लिया,
उसे घेरकर बाहों में कौतूहल उसमें जगा
दिया ।
विद्युत धारा भाँति प्यार संचालित होना
शुरू हुआ,
हृदय हृदय थे मिले हुए उनमें धड़कन गतिमान
हुआ ।
मधुर श्वास उसकी आती थी जैसे गन्ध बहारों की,
मुख समीप आभास कराती देव परी के मुख जैसी ।
नल के आनन को ढकते लहरा कर उसके मसृण केश,
उसी ओट में चुम्बन से वह उसका करती फिर
अभिषेक ।
उसकी अलकों में नल का मुख मण्डल ऐसा था
उलझा,
सागर लहरों में जैसे एक स्वर्ण शैल दिखता
छिपता ।
हिम गिरि के थे शिखर युग्म उत्तुंग
प्रतीक्षारत उसके,
रह रह प्रेम प्रवाहित होता प्रेरित हो
करके उससे ।
कंचन कठोर
स्तम्भों को पद सरसिज से सहलाती थी,
तीब्र व्यग्रता
की अपनी मधुमय आभास कराती थी ।
धवल चन्द्रिका
सरकी रवि से वक्ष हिमालय पर आयी,
स्पंदित गिरि
का ह्रदय हो गया उसे गुदगुदी लग आयी ।
इस मानस में उस मानस में हुई हलचलों
के सन्देश,
आते जाते श्वास
बन गए सम्प्रेषण के दूत विशेष ।
सुषुप्तावस्था में कुमार कुछ लेटा सोच रहा
था,
बार-बार हर कोशिश कर उसको पहचान रहा था ।
जब कभी हथेली से सहलाता उसकी त्वचा नशीली को,
लगता तब-तब मनो छू रहा अपनी प्यारी प्रेयसी
को ।
बार-बार वह पता लगाता पड़ी हुई है क्या उस
पर,
कौन भला क्यों दिया है उसको अपना पूर्ण
समर्पण कर ।
उसे याद आया सोचा था ऐसा उसकी अपनी ने,
उसे भिगोना चाहा था उसकी अपनी निर्झरिणी
ने ।
अब कुमार ने जान लिया वह कौन वहाँ क्यों
आई है,
उसको अब विश्वास हुआ उसकी दमयन्ती आई है ।
फिर क्या था, हो छूता जैसे फूलों को उसका माली,
वाहों में ले उसे पिलाया प्रेम भरी वैसे
प्याली ।
हल्के से फिर उसे सुलाया नरम मखमली सैया
पर,
वह नाविक बन गया सुमन से लदी मनो एक नैया
पर ।
अनुपम दृश्य देखने की उत्कंठा मन में गूँज
उठी,
तरुणाई तूफ़ानों में मर्यादा उसकी धूल हुई
।
सहमें कुमार ने
परत बर्फ की तब समेटना शुरू किया,
नवयौवन की ऊष्म राशि वह देख अचानक चकित
हुआ ।
बचा बचा कर
संचित उसको शायद उसने रखा था,
उस वैभव को उसे
लुटाने का अवसर यह अच्छा था ।
अनावरित कुछ और
किया फिर जिज्ञासू नल ने जैसे,
पंकज की कोमल कलियों के दृश्य लुभाने दिखे
उसे ।
आनन्दित मकरन्द
बूंद को पी कर अलि होता जितना,
जलज-युग्म से लिपट-लिपट वह पुलकित होता था उतना ।
तभी अचानक ही क्या हा.. हा.. का स्वर नाद हुआ,
व्याकुल लहरों की गर्जन का उसे कहीं आभास
हुआ ।
ध्यान दिया तो
उसने पाया और नहीं
ऐसा कुछ है,
यह तो उसकी प्रेम-उमड़ का अंतः से आता स्वर है ।
डरते डरते शुभ्र मेघ से शशि को पूरा मुक्त
किया,
फैल चंद्रिका गयी चंद्र से तम उसमें सब
लुप्त हुआ ।
पलकें बंद किए लेटी उन्मत्त शान्त
वह सोई थी,
सोई क्या थी सच में तो दमयन्ती नल में खोई
थी ।
प्रथम बार देखा कुमार ने जनागमन का अमिट
द्वार,
जो स्वागत हेतु कर रहा था आमंत्रित उसको
बार बार ।
स्वर्ग द्वार का बैभव ऐसा धैर्य नहीं रख
पाया वह,
उत्तेजित हो उठा शीघ्र वह गिरि समुद्र को
ढकने को ।
किन्तु अचानक शून्य मात्र ही उसकी बाहों
में आया,
उससे उसकी छीन ले गया जाने किसने क्या
पाया ।
‘पगले, यह सब सपना था !’ कह महाबली नल उठ बैठा ।
‘सपना निश्चित सच होगा’ उस दृढ़
प्रतिज्ञ ने फिर सोचा ।
‘दमयन्ती मेरी अपनी है, दमयन्ती
मेरी दमयन्ती !
प्यारी प्यारी दमयन्ती, दमयन्ती प्यारी दमयन्ती !’
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-Poet Ramesh Tiwari
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