अवधी लोक साहित्य में पेंड पौधों का महत्व
जैसे पहाड़ों जंगलों में वनस्पतियां स्वतः उगती व् विकसित होती हैं उसी तरह जन सामान्य की सामजिक पृष्ठभूमि पर लोक साहित्य उतपन्न होता है । हमारे लोक साहित्य, संस्कारों और आचारों-व्यवहारों में निरंतर प्रकृति और मानवीय चेतना की अभिव्यक्त होती रही है। लोक स्वयं ही प्रकृति का पर्याय है।
मोटे तौर पर हम लोक साहित्य को कथा, गीत, कहावतों के रूपों में प्राप्त करते हैं । डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय ने लोक साहित्य को चार रूपों में बांटा है : गीत, लोकगाथा, लोककथा तथा प्रकीर्ण साहित्य जिसमें अवशिष्ट समस्त लोकाभिव्यक्ति का समावेश कर लिया गया है ।
देवी देवताओं की पूजा के लिए रचित गीत तथा दादी दादा की कहानी व् मन्त्र लोकसाहित्य के अंग हैं । धरती, आकाश, कुँआ, तालाब, नदी, नाला, डीह, मरी मसान, वृक्ष, फसल, पौधा, पशु, दैत्य, दानव, देवी, देवता, ब्रह्म एवं तीर्थ आदि पर जो मंत्र या गीत प्रचलित हैं वे इसी के अंतर्गत आते हैं । जन्म से लेकर मरण तक के सभी संस्कार तथा खेती बारी, फसल की पूजा, गृहनिर्माण, कूपनिर्माण, मंदिर एवं धर्मशाला का निर्माण के लिए जिन गीतों अथवा मंत्रों का प्रयोग होता है वे सब इस साहित्य में आते हैं। रोगों के निदान के लिए भी मंत्रों का प्रयोग होता है । हमारी संस्कृति इन्हीं परंपराओं पर आधारित है ।
अवधी लोकगीतों में अवध क्षेत्र के लोक विश्वासों, परम्पराओं, प्रथाओं, रीति-रिवाजों, खान-पान रहन-सहन आदि का स्वाभाविक चित्रण किया गया है । अवधीभाषी समाज की सांस्कृतिक चेतना का अविरल प्रवाह अवधी लोकगीतों के माध्यम से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को होता रहा है। अवधी लोकगीतों में रामकथा की प्रधानता है इसमें अवध क्षेत्र की जनता की सामाजिक धार्मिक आर्थिक सांस्कृतिक स्थितियों की झलक मिलती है। पौराणिक आख्यानों के साथ-साथ कुछ ऐतिहासिक घटनाएं भी अवधी लोकगीतों में देखने को मिलती हैं।
भारत में अवधी मुख्यतः उत्तर प्रदेश में बोली जाती है। अमेठी, प्रतापगढ़, सुल्तानपुर, रायबरेली, प्रयागराज, कौशांबी, अम्बेडकर नगर, सिद्धार्थ नगर, गोंडा, बलरामपुर, बाराबंकी, अयोध्या, लखनऊ, हरदोई, सीतापुर, लखीमपुर खीरी, बहराइच, बस्ती एवं फतेहपुर उत्तर प्रदेश के अवधी भाषी जिले हैं । यह मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और बिहार के कुछ जिलों में भी बोली जाती है। भारत के अतिरिक्त अवधी फिजी और नेपाल में भी बोली जाती है । स्पष्ट है अवधी लोक साहित्य का उदभव एवं विकास भी इन्हीं स्थानों से हुआ है किन्तु इसकी लोकप्रियता सम्पूर्ण विश्व में है ।
प्रकृति और मानव का सम्बन्ध आदि काल से है या ऐसा कहा जा सकता है कि मानव प्रकृति का ठीक उसी तरह एक अंग है जैसे पेंड पौधे । अतः मानव संवेदनाओं में प्रकृति की किसी न किसी रूप में उपस्थित होना स्वाभाविक है । भारतीय साहित्य में प्रकृति चित्रण की परम्परा रही है । प्रकृति की गोद में मनुष्य पैदा होता है उसी के गोद में खेलकर बड़ा होता है। इसीलिए धर्म, दर्शन, साहित्य और कला में मानव और प्रकृति के इस अटूट सम्बन्ध की अभिव्यक्ति चिरकाल से होती रही है। साहित्य मानव ह्रदय की वह अभिव्यक्ति है जिसमें उसका जीवन ही नहीं बल्कि प्रकृति के विभिन्न रूपों का भी समावेश है । आलंबन, उद्दीपन, उपमान, पृष्ठभूमि, प्रतीक, अलंकार, उपदेश, दूती, बिम्ब-प्रतिबिम्ब, मानवीकरण, रहस्य तथा मानव-भावनाओं का आरोप आदि विभिन्न तरीके हैं जिसके माध्यम से काव्य में प्रकृति का वर्णन किया जाता है ।
हमारे समाज में पीपल का बहुत महत्व है । पीपल के वृक्ष में जड़ से लेकर पत्तियों तक तैंतीस कोटि देवताओं का वास होता है और इसलिए पीपल का वृक्ष पूजनीय माना गया है । पीपल की पूजा का प्रचलन प्राचीन काल से ही रहा है। सामान्यतः शनिवार की अमावस्या को तथा विशेष रूप से अनुराधा नक्षत्र से युक्त शनिवार की अमावस्या के दिन पीपल वृक्ष की पूजा और सात परिक्रमा करके काले तिल से युक्त सरसो के तेल के दीपक को जलाकर छायादान करने से शनि की पीड़ा से मुक्ति मिलती है। श्रावण मास में अमावस्या की समाप्ति पर पीपल वृक्ष के नीचे शनिवार के दिन हनुमान जी की पूजा करने से सभी तरह के संकट से मुक्ति मिल जाती है। पीपल के दर्शन-पूजन से दीर्घायु तथा समृद्धि प्राप्त होती है। अश्वत्थ व्रत अनुष्ठान से कन्या अखण्ड सौभाग्य पाती है। पीपल में जल अर्पण करने से रोग और शोक मिट जाते हैं। औषधीय गुणों के कारण पीपल के वृक्ष को 'कल्पवृक्ष' की संज्ञा दी गई है । इसके छाल, पत्ते, फल, बीज, दूध, जटा एवं कोपल तथा लाख सभी प्रकार की व्याधियों के निदान में काम आते हैं । सर्वाधिक ऑक्सीजन निस्सृत करने के कारण इसे प्राणवायु का भंडार कहा जाता है। विषैली गैसों को आत्मसात करने की इसमें अकूत क्षमता है। पीपल की छाया में वात, पित्त और कफ का शमन होता है तथा उनका संतुलन भी बना रहता है। इससे मानसिक शांति भी प्राप्त होती है।
सावत्री त्योहार पूरी तरह से बरगद या वटवृक्ष को ही समर्पित है। माना गया है क़ि वरगद के पेंड़ पर ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश तीनों देवता निवास करते हैं । चूंकि बरगद को साक्षात शिव कहा गया है इसलिए इसके दर्शन करने से शिव के दर्शन होते हैं । भारत में अक्षयवट, पंचवट, वंशीवट, गयावट और सिद्धवट नामक पांच प्राचीन वटबृक्ष हैं जिनका चिर काल से धार्मिक महत्व रहा है । संसार में उक्त पांच वटों को पवित्र वट की श्रेणी में रखा गया है। अक्षयवट प्रयाग में, पंचवट नासिक में, वंशीवट वृंदावन में, गयावट गया में और उज्जैन में पवित्र सिद्धवट हैं ।
हमारे यहाँ जब भी कोई मांगलिक कार्य होते हैं तो घर या पूजा स्थल के द्वार व दीवारों पर आम के पत्तों की लड़ लगाकर मांगलिक उत्सव को धार्मिक बनाते हुए वातावरण को शुद्ध किया जाता है। अक्सर धार्मिक पंडाल और मंडपों में सजावट के लिए आम के पत्तों का इस्तेमाल किया जाता है। आम की हजारों किस्में हैं और इसमें जो फल लगता है वह दुनियाभर में प्रसिद्ध है। आम के रस से कई प्रकार के रोग दूर होते हैं।
भारत में बिल्व अथवा बेल का पीपल, नीम, आम, पारिजात और पलाश आदि वृक्षों के समान ही बहुत सम्मान है। बिल्व वृक्ष भगवान शिव की अराधना का मुख्य अंग है। धार्मिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होने के कारण इसे मंदिरों के पास लगाया जाता है। बिल्व वृक्ष की तासीर बहुत शीतल होती है। गर्मी की तपिश से बचने के लिए इसके फल का शर्बत बड़ा ही लाभकारी होता है। यह शर्बत कुपचन, आंखों की रोशनी में कमी, पेट में कीड़े और लू लगने जैसी समस्याओं से निजात पाने के लिए उत्तम है। बिल्व की पत्तियों मे टैनिन, लोह, कैल्शियम, पोटेशियम और मैग्नेशियम जैसे रसायन पाए जाते हैं। बेल वृक्ष की उत्पत्ति के संबंध में 'स्कंदपुराण' में कहा गया है कि एक बार देवी पार्वती ने अपनी ललाट से पसीना पोछकर फेंका, जिसकी कुछ बूंदें मंदार पर्वत पर गिरीं, जिससे बेल वृक्ष उत्पन्न हुआ। इस वृक्ष की जड़ों में गिरिजा, तना में महेश्वरी, शाखाओं में दक्षयायनी, पत्तियों में पार्वती, फूलों में गौरी और फलों में कात्यायनी वास करती हैं। यह माना जाता है कि देवी महालक्ष्मी का भी बेल वृक्ष में वास है। जो व्यक्ति शिव-पार्वती की पूजा बेलपत्र अर्पित कर करते हैं, उन्हें महादेव और देवी पार्वती दोनों का आशीर्वाद मिलता है। 'शिवपुराण' में इसकी महिमा विस्तृत रूप में बतायी गयी है।
अशोक वृक्ष को बहुत ही पवित्र और लाभकारी माना गया है। अशोक का शब्दिक अर्थ होता है- किसी भी प्रकार का शोक न होना। मांगलिक एवं धार्मिक कार्यों में अशोक के पत्तों का प्रयोग किया जाता है। माना जाता है कि अशोक वृक्ष घर में लगाने से या इसकी जड़ को शुभ मुहूर्त में धारण करने से मनुष्य को सभी शोकों से मुक्ति मिल जाती है। अशोक का वृक्ष वात-पित्त आदि दोष, अपच, तृषा, दाह, कृमि, शोथ, विष तथा रक्त विकार नष्ट करने वाला है। इसके उपयोग से चर्म रोग भी दूर होता है। अशोक का वृक्ष घर में उत्तर दिशा में लगाना चाहिए जिससे गृह में सकारात्मक ऊर्जा का संचारण बना रहता है। घर में अशोक के वृक्ष होने से सुख, शांति एवं समृद्धि बनी रहती है एवं अकाल मृत्यु नहीं होती। इसके पत्ते शुरू में तांबे जैसे रंग के होते हैं इसीलिए इसे 'ताम्रपल्लव' भी कहते हैं। इसके नारंगी रंग के फूल वसंत ऋतु में आते हैं, जो बाद में लाल रंग के हो जाते हैं। सुनहरे लाल रंग के फूलों वाला होने से इसे 'हेमपुष्पा' भी कहा जाता है।
नीम एक चमत्कारी वृक्ष माना जाता है। नीम जो प्रायः सर्व सुलभ वृक्ष आसानी से मिल जाता है। नीम को संस्कृत में निम्ब कहा जाता है। यह वृक्ष अपने औषधीय गुणों के कारण पारंपरिक इलाज में बहुपयोगी सिद्ध होता आ रहा है। चरक संहिता जैसे प्राचीन चिकित्सा ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है। नीम शीतल और हृदय को प्रिय होता है । अग्नि, परिश्रम, तृषा, अरुचि, क्रीमी, व्रण, कफ, वामन, कोढ़ और विभिन्न प्रमेह को नष्ट करता है। नीम के पेड़ का धार्मिक महत्त्व भी है। मां दुर्गा का रूप माने जाने वाले इस पेड़ को कहीं-कहीं नीमारी देवी भी कहते हैं। इस पेड़ की पूजा की जाती है। कहते हैं कि नीम की पत्तियों के धुएं से बुरी और प्रेत आत्माओं से रक्षा होती है।
केले का पेड़ अत्यधिक पवित्र माना जाता है और कई धार्मिक कार्यों में इसका प्रयोग किया जाता है। भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी को केले का भोग लगाया जाता है। केले के पत्तों में प्रसाद बांटा जाता है। माना जाता है कि समृद्धि के लिए केले के पेड़ की पूजा अच्छी होती है। केला हर मौसम में सरलता से उपलब्ध होने वाला अत्यंत पौष्टिक एवं स्वादिष्ट फल है। केला रोचक, मधुर, शक्तिशाली, वीर्य व मांस बढ़ाने वाला, नेत्रदोष में हितकारी है। पके केले के नियमित सेवन से शरीर पुष्ट होता है। यह कफ, रक्तपित, वात और प्रदर को नष्ट करता है।
इन बृक्षों की पूजा व् इनसे सम्बंधित ब्रत हमारे पूर्वजों ने अन्धविश्वास में निर्धारित नहीं किये थे बल्कि उनका उद्देश्य हमें स्वस्थ रखने का था । वर्ष भर विभिन्न बृक्षों की पूजा या मांगलिक कार्यों में उनकी उपयोगिता के कारण ये हमारे अवधी लोक साहित्य के अभिन्न अंग बन गए । जहाँ हमारी लोक कथाओं में अनेकों प्रजाति के पेड़ों का वर्णन मिलता है वहीँ ये हमारे लोक गीतों और कहावतों में उनकी आत्मा के रूप में विद्यमान हैं ।
निम्न गीत की पंक्तियाँ प्रमाणित करती हैं कि प्रत्येक घर के पीछे की फुलवारी में लौंग के पेंड हुआ करते थे :
मोरे पिछवरवाँ लौंगा कै पेड़वा लौंगा चुवै आधी रात
लौंगा मै चुन बिन ढेरिया लगायों लादी चले हैं बनिजार
विदा होती लड़की भी परिवेश के महत्व को खूब जानती है। उसे घर के पशुओं का ही नहीं, पेड़ों-पौधों की भी भूमिका का पता है। वह अपने घर के नीम के पेड़ और उस पर आने वाली चिड़ियों में जीवन का फैलाव देखती है।
बाबा निबिया कै पेंडवा जिन कटवायव,
निबिया चिरैया बसेर, बलैया लेहु बीरन की।
बाबा सगरी चिरैया उड़ि जइहैं,
रहि जइहैं निबिया अकेलि, बलैया लेहु बीरन की।
धोबियों के गीत : धोबी लोग काम करते समय या अवकाश के समय गीत गाते हैं परन्तु विशेष रूप से पुत्र जन्मोत्सव व् वैवाहिक कार्यक्रम के समय विशेष साज सज्जा के साथ गाते हैं ।
निबिया कै पेंडवा जबै नीकि लगै जब निबकौरी न होय
मालिक जब निबकौरी न होय ।
गेहुवाँ कै रोटिया जबै नीकी लागै घिव से चभोरी होय
मालिक घिव से चभोरी होय ।
बारह मासा विरह गीत : यह ऐसा लोकगीत है जो साल के बारहो महीने के अवसरानुकूल गाया जाता है । इन गीतों में विरहानुभूति का बड़ा ही रोमांचकारी चित्र उकेरा गया होता है ।
नहिं आये हमारे श्याम ।
माघव न आये फागुन न आये पड़त गुलाल खेलें सखि फाग ।
चैतौ न आये बैसाखौ न आये फरि गए आम फूलि रहे टेसू ।
महान किसान कवि घाघ के अनुसार यदि मदार खूब फूलता है तो कोदो की फसल अच्छी है। नीम के पेड़ में अधिक फूल-फल लगते है तो जौ की फसल, यदि गाड़र की वृद्धि होती है तो गेहूं बेर और चने की फसल अच्छी होती है।
आंक से कोदो, नीम जवा।
गाड़र गेहूं बेर चना।।
देवी गीत का आकर्षण तुलसी का पौधा है :
लहर लहर लहराय हो मेरे आंगन की तुलसी
मैया की मांगों में बेंदी सोहे बेंदी सोहे टीका सोहे
सेन्दुरा से मांग भराई हो मेरे आँगन की तुलसी
रीतिकाल को हिंदी साहित्य में उत्कृष्ट साहित्य सृजन के लिए बहुत अच्छा काल नहीं माना जाता। कहते हैं कि वो दरबारी काल था। फिर भी उस काल के सहृदय कवि सेनापति ने लिखा है-
फूली है कुमुद फूली मालती सघन बन
मानहुं जगत छीर सागर मगन है
रामचरित मानस में महाकवि तुलसीदास जी लंका नगरी की प्राकृतिक सौंदर्य का वर्णन करते हुए लिखते हैं :
नाना तरु फल फूल सुहाए, खग मृग बृंद देखि मन भाये ।
अवधी भाषा में सवैया के इन छंदों को मैने सन 1982 में लिखा था । देखिए यदि प्रकृति के मनोरम वर्णन को इसमें से निकाल दिया जाय तो ये छन्द वैसे हो जाएँगे जैसे सुगंध विहीन पुष्प :
नंदनन्द के धाम अनंद महा बहु भाय रही ब्रिज की फुलवारी ।
उठि धाय चलो तहँ को सुसखा सब जाय रहे पुर के नर-नारी ।।
बहु रंग के फूल अनन्त खिले अलि बृंद अचंभित आज अनारी ।
मन्द गती की समीर सुगन्धित कंपित पुष्प, लता, पट, डारी ।।
सर कन्चन थाल में पंकज लै करपै नव चंचल अंचल डारे ।
स्वागत हेतु खड़ी हरि के कछु लाज के कारन घूँघुट काढ़े ।।
अवलोकत हूँ खग हूँ न उडें अति आतुर ह्वे धुनिहूँ न सुनावें ।
आवत देखि के राधे गोपाल उतावल ह्वे सुधि-बुद्धि नसावें ।।
मोटे तौर पर हम लोक साहित्य को कथा, गीत, कहावतों के रूपों में प्राप्त करते हैं । डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय ने लोक साहित्य को चार रूपों में बांटा है : गीत, लोकगाथा, लोककथा तथा प्रकीर्ण साहित्य जिसमें अवशिष्ट समस्त लोकाभिव्यक्ति का समावेश कर लिया गया है ।
देवी देवताओं की पूजा के लिए रचित गीत तथा दादी दादा की कहानी व् मन्त्र लोकसाहित्य के अंग हैं । धरती, आकाश, कुँआ, तालाब, नदी, नाला, डीह, मरी मसान, वृक्ष, फसल, पौधा, पशु, दैत्य, दानव, देवी, देवता, ब्रह्म एवं तीर्थ आदि पर जो मंत्र या गीत प्रचलित हैं वे इसी के अंतर्गत आते हैं । जन्म से लेकर मरण तक के सभी संस्कार तथा खेती बारी, फसल की पूजा, गृहनिर्माण, कूपनिर्माण, मंदिर एवं धर्मशाला का निर्माण के लिए जिन गीतों अथवा मंत्रों का प्रयोग होता है वे सब इस साहित्य में आते हैं। रोगों के निदान के लिए भी मंत्रों का प्रयोग होता है । हमारी संस्कृति इन्हीं परंपराओं पर आधारित है ।
अवधी लोकगीतों में अवध क्षेत्र के लोक विश्वासों, परम्पराओं, प्रथाओं, रीति-रिवाजों, खान-पान रहन-सहन आदि का स्वाभाविक चित्रण किया गया है । अवधीभाषी समाज की सांस्कृतिक चेतना का अविरल प्रवाह अवधी लोकगीतों के माध्यम से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को होता रहा है। अवधी लोकगीतों में रामकथा की प्रधानता है इसमें अवध क्षेत्र की जनता की सामाजिक धार्मिक आर्थिक सांस्कृतिक स्थितियों की झलक मिलती है। पौराणिक आख्यानों के साथ-साथ कुछ ऐतिहासिक घटनाएं भी अवधी लोकगीतों में देखने को मिलती हैं।
भारत में अवधी मुख्यतः उत्तर प्रदेश में बोली जाती है। अमेठी, प्रतापगढ़, सुल्तानपुर, रायबरेली, प्रयागराज, कौशांबी, अम्बेडकर नगर, सिद्धार्थ नगर, गोंडा, बलरामपुर, बाराबंकी, अयोध्या, लखनऊ, हरदोई, सीतापुर, लखीमपुर खीरी, बहराइच, बस्ती एवं फतेहपुर उत्तर प्रदेश के अवधी भाषी जिले हैं । यह मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और बिहार के कुछ जिलों में भी बोली जाती है। भारत के अतिरिक्त अवधी फिजी और नेपाल में भी बोली जाती है । स्पष्ट है अवधी लोक साहित्य का उदभव एवं विकास भी इन्हीं स्थानों से हुआ है किन्तु इसकी लोकप्रियता सम्पूर्ण विश्व में है ।
प्रकृति और मानव का सम्बन्ध आदि काल से है या ऐसा कहा जा सकता है कि मानव प्रकृति का ठीक उसी तरह एक अंग है जैसे पेंड पौधे । अतः मानव संवेदनाओं में प्रकृति की किसी न किसी रूप में उपस्थित होना स्वाभाविक है । भारतीय साहित्य में प्रकृति चित्रण की परम्परा रही है । प्रकृति की गोद में मनुष्य पैदा होता है उसी के गोद में खेलकर बड़ा होता है। इसीलिए धर्म, दर्शन, साहित्य और कला में मानव और प्रकृति के इस अटूट सम्बन्ध की अभिव्यक्ति चिरकाल से होती रही है। साहित्य मानव ह्रदय की वह अभिव्यक्ति है जिसमें उसका जीवन ही नहीं बल्कि प्रकृति के विभिन्न रूपों का भी समावेश है । आलंबन, उद्दीपन, उपमान, पृष्ठभूमि, प्रतीक, अलंकार, उपदेश, दूती, बिम्ब-प्रतिबिम्ब, मानवीकरण, रहस्य तथा मानव-भावनाओं का आरोप आदि विभिन्न तरीके हैं जिसके माध्यम से काव्य में प्रकृति का वर्णन किया जाता है ।
हमारे समाज में पीपल का बहुत महत्व है । पीपल के वृक्ष में जड़ से लेकर पत्तियों तक तैंतीस कोटि देवताओं का वास होता है और इसलिए पीपल का वृक्ष पूजनीय माना गया है । पीपल की पूजा का प्रचलन प्राचीन काल से ही रहा है। सामान्यतः शनिवार की अमावस्या को तथा विशेष रूप से अनुराधा नक्षत्र से युक्त शनिवार की अमावस्या के दिन पीपल वृक्ष की पूजा और सात परिक्रमा करके काले तिल से युक्त सरसो के तेल के दीपक को जलाकर छायादान करने से शनि की पीड़ा से मुक्ति मिलती है। श्रावण मास में अमावस्या की समाप्ति पर पीपल वृक्ष के नीचे शनिवार के दिन हनुमान जी की पूजा करने से सभी तरह के संकट से मुक्ति मिल जाती है। पीपल के दर्शन-पूजन से दीर्घायु तथा समृद्धि प्राप्त होती है। अश्वत्थ व्रत अनुष्ठान से कन्या अखण्ड सौभाग्य पाती है। पीपल में जल अर्पण करने से रोग और शोक मिट जाते हैं। औषधीय गुणों के कारण पीपल के वृक्ष को 'कल्पवृक्ष' की संज्ञा दी गई है । इसके छाल, पत्ते, फल, बीज, दूध, जटा एवं कोपल तथा लाख सभी प्रकार की व्याधियों के निदान में काम आते हैं । सर्वाधिक ऑक्सीजन निस्सृत करने के कारण इसे प्राणवायु का भंडार कहा जाता है। विषैली गैसों को आत्मसात करने की इसमें अकूत क्षमता है। पीपल की छाया में वात, पित्त और कफ का शमन होता है तथा उनका संतुलन भी बना रहता है। इससे मानसिक शांति भी प्राप्त होती है।
सावत्री त्योहार पूरी तरह से बरगद या वटवृक्ष को ही समर्पित है। माना गया है क़ि वरगद के पेंड़ पर ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश तीनों देवता निवास करते हैं । चूंकि बरगद को साक्षात शिव कहा गया है इसलिए इसके दर्शन करने से शिव के दर्शन होते हैं । भारत में अक्षयवट, पंचवट, वंशीवट, गयावट और सिद्धवट नामक पांच प्राचीन वटबृक्ष हैं जिनका चिर काल से धार्मिक महत्व रहा है । संसार में उक्त पांच वटों को पवित्र वट की श्रेणी में रखा गया है। अक्षयवट प्रयाग में, पंचवट नासिक में, वंशीवट वृंदावन में, गयावट गया में और उज्जैन में पवित्र सिद्धवट हैं ।
हमारे यहाँ जब भी कोई मांगलिक कार्य होते हैं तो घर या पूजा स्थल के द्वार व दीवारों पर आम के पत्तों की लड़ लगाकर मांगलिक उत्सव को धार्मिक बनाते हुए वातावरण को शुद्ध किया जाता है। अक्सर धार्मिक पंडाल और मंडपों में सजावट के लिए आम के पत्तों का इस्तेमाल किया जाता है। आम की हजारों किस्में हैं और इसमें जो फल लगता है वह दुनियाभर में प्रसिद्ध है। आम के रस से कई प्रकार के रोग दूर होते हैं।
भारत में बिल्व अथवा बेल का पीपल, नीम, आम, पारिजात और पलाश आदि वृक्षों के समान ही बहुत सम्मान है। बिल्व वृक्ष भगवान शिव की अराधना का मुख्य अंग है। धार्मिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होने के कारण इसे मंदिरों के पास लगाया जाता है। बिल्व वृक्ष की तासीर बहुत शीतल होती है। गर्मी की तपिश से बचने के लिए इसके फल का शर्बत बड़ा ही लाभकारी होता है। यह शर्बत कुपचन, आंखों की रोशनी में कमी, पेट में कीड़े और लू लगने जैसी समस्याओं से निजात पाने के लिए उत्तम है। बिल्व की पत्तियों मे टैनिन, लोह, कैल्शियम, पोटेशियम और मैग्नेशियम जैसे रसायन पाए जाते हैं। बेल वृक्ष की उत्पत्ति के संबंध में 'स्कंदपुराण' में कहा गया है कि एक बार देवी पार्वती ने अपनी ललाट से पसीना पोछकर फेंका, जिसकी कुछ बूंदें मंदार पर्वत पर गिरीं, जिससे बेल वृक्ष उत्पन्न हुआ। इस वृक्ष की जड़ों में गिरिजा, तना में महेश्वरी, शाखाओं में दक्षयायनी, पत्तियों में पार्वती, फूलों में गौरी और फलों में कात्यायनी वास करती हैं। यह माना जाता है कि देवी महालक्ष्मी का भी बेल वृक्ष में वास है। जो व्यक्ति शिव-पार्वती की पूजा बेलपत्र अर्पित कर करते हैं, उन्हें महादेव और देवी पार्वती दोनों का आशीर्वाद मिलता है। 'शिवपुराण' में इसकी महिमा विस्तृत रूप में बतायी गयी है।
अशोक वृक्ष को बहुत ही पवित्र और लाभकारी माना गया है। अशोक का शब्दिक अर्थ होता है- किसी भी प्रकार का शोक न होना। मांगलिक एवं धार्मिक कार्यों में अशोक के पत्तों का प्रयोग किया जाता है। माना जाता है कि अशोक वृक्ष घर में लगाने से या इसकी जड़ को शुभ मुहूर्त में धारण करने से मनुष्य को सभी शोकों से मुक्ति मिल जाती है। अशोक का वृक्ष वात-पित्त आदि दोष, अपच, तृषा, दाह, कृमि, शोथ, विष तथा रक्त विकार नष्ट करने वाला है। इसके उपयोग से चर्म रोग भी दूर होता है। अशोक का वृक्ष घर में उत्तर दिशा में लगाना चाहिए जिससे गृह में सकारात्मक ऊर्जा का संचारण बना रहता है। घर में अशोक के वृक्ष होने से सुख, शांति एवं समृद्धि बनी रहती है एवं अकाल मृत्यु नहीं होती। इसके पत्ते शुरू में तांबे जैसे रंग के होते हैं इसीलिए इसे 'ताम्रपल्लव' भी कहते हैं। इसके नारंगी रंग के फूल वसंत ऋतु में आते हैं, जो बाद में लाल रंग के हो जाते हैं। सुनहरे लाल रंग के फूलों वाला होने से इसे 'हेमपुष्पा' भी कहा जाता है।
नीम एक चमत्कारी वृक्ष माना जाता है। नीम जो प्रायः सर्व सुलभ वृक्ष आसानी से मिल जाता है। नीम को संस्कृत में निम्ब कहा जाता है। यह वृक्ष अपने औषधीय गुणों के कारण पारंपरिक इलाज में बहुपयोगी सिद्ध होता आ रहा है। चरक संहिता जैसे प्राचीन चिकित्सा ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है। नीम शीतल और हृदय को प्रिय होता है । अग्नि, परिश्रम, तृषा, अरुचि, क्रीमी, व्रण, कफ, वामन, कोढ़ और विभिन्न प्रमेह को नष्ट करता है। नीम के पेड़ का धार्मिक महत्त्व भी है। मां दुर्गा का रूप माने जाने वाले इस पेड़ को कहीं-कहीं नीमारी देवी भी कहते हैं। इस पेड़ की पूजा की जाती है। कहते हैं कि नीम की पत्तियों के धुएं से बुरी और प्रेत आत्माओं से रक्षा होती है।
केले का पेड़ अत्यधिक पवित्र माना जाता है और कई धार्मिक कार्यों में इसका प्रयोग किया जाता है। भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी को केले का भोग लगाया जाता है। केले के पत्तों में प्रसाद बांटा जाता है। माना जाता है कि समृद्धि के लिए केले के पेड़ की पूजा अच्छी होती है। केला हर मौसम में सरलता से उपलब्ध होने वाला अत्यंत पौष्टिक एवं स्वादिष्ट फल है। केला रोचक, मधुर, शक्तिशाली, वीर्य व मांस बढ़ाने वाला, नेत्रदोष में हितकारी है। पके केले के नियमित सेवन से शरीर पुष्ट होता है। यह कफ, रक्तपित, वात और प्रदर को नष्ट करता है।
इन बृक्षों की पूजा व् इनसे सम्बंधित ब्रत हमारे पूर्वजों ने अन्धविश्वास में निर्धारित नहीं किये थे बल्कि उनका उद्देश्य हमें स्वस्थ रखने का था । वर्ष भर विभिन्न बृक्षों की पूजा या मांगलिक कार्यों में उनकी उपयोगिता के कारण ये हमारे अवधी लोक साहित्य के अभिन्न अंग बन गए । जहाँ हमारी लोक कथाओं में अनेकों प्रजाति के पेड़ों का वर्णन मिलता है वहीँ ये हमारे लोक गीतों और कहावतों में उनकी आत्मा के रूप में विद्यमान हैं ।
निम्न गीत की पंक्तियाँ प्रमाणित करती हैं कि प्रत्येक घर के पीछे की फुलवारी में लौंग के पेंड हुआ करते थे :
मोरे पिछवरवाँ लौंगा कै पेड़वा लौंगा चुवै आधी रात
लौंगा मै चुन बिन ढेरिया लगायों लादी चले हैं बनिजार
विदा होती लड़की भी परिवेश के महत्व को खूब जानती है। उसे घर के पशुओं का ही नहीं, पेड़ों-पौधों की भी भूमिका का पता है। वह अपने घर के नीम के पेड़ और उस पर आने वाली चिड़ियों में जीवन का फैलाव देखती है।
बाबा निबिया कै पेंडवा जिन कटवायव,
निबिया चिरैया बसेर, बलैया लेहु बीरन की।
बाबा सगरी चिरैया उड़ि जइहैं,
रहि जइहैं निबिया अकेलि, बलैया लेहु बीरन की।
धोबियों के गीत : धोबी लोग काम करते समय या अवकाश के समय गीत गाते हैं परन्तु विशेष रूप से पुत्र जन्मोत्सव व् वैवाहिक कार्यक्रम के समय विशेष साज सज्जा के साथ गाते हैं ।
निबिया कै पेंडवा जबै नीकि लगै जब निबकौरी न होय
मालिक जब निबकौरी न होय ।
गेहुवाँ कै रोटिया जबै नीकी लागै घिव से चभोरी होय
मालिक घिव से चभोरी होय ।
बारह मासा विरह गीत : यह ऐसा लोकगीत है जो साल के बारहो महीने के अवसरानुकूल गाया जाता है । इन गीतों में विरहानुभूति का बड़ा ही रोमांचकारी चित्र उकेरा गया होता है ।
नहिं आये हमारे श्याम ।
माघव न आये फागुन न आये पड़त गुलाल खेलें सखि फाग ।
चैतौ न आये बैसाखौ न आये फरि गए आम फूलि रहे टेसू ।
महान किसान कवि घाघ के अनुसार यदि मदार खूब फूलता है तो कोदो की फसल अच्छी है। नीम के पेड़ में अधिक फूल-फल लगते है तो जौ की फसल, यदि गाड़र की वृद्धि होती है तो गेहूं बेर और चने की फसल अच्छी होती है।
आंक से कोदो, नीम जवा।
गाड़र गेहूं बेर चना।।
देवी गीत का आकर्षण तुलसी का पौधा है :
लहर लहर लहराय हो मेरे आंगन की तुलसी
मैया की मांगों में बेंदी सोहे बेंदी सोहे टीका सोहे
सेन्दुरा से मांग भराई हो मेरे आँगन की तुलसी
रीतिकाल को हिंदी साहित्य में उत्कृष्ट साहित्य सृजन के लिए बहुत अच्छा काल नहीं माना जाता। कहते हैं कि वो दरबारी काल था। फिर भी उस काल के सहृदय कवि सेनापति ने लिखा है-
फूली है कुमुद फूली मालती सघन बन
मानहुं जगत छीर सागर मगन है
रामचरित मानस में महाकवि तुलसीदास जी लंका नगरी की प्राकृतिक सौंदर्य का वर्णन करते हुए लिखते हैं :
नाना तरु फल फूल सुहाए, खग मृग बृंद देखि मन भाये ।
अवधी भाषा में सवैया के इन छंदों को मैने सन 1982 में लिखा था । देखिए यदि प्रकृति के मनोरम वर्णन को इसमें से निकाल दिया जाय तो ये छन्द वैसे हो जाएँगे जैसे सुगंध विहीन पुष्प :
नंदनन्द के धाम अनंद महा बहु भाय रही ब्रिज की फुलवारी ।
उठि धाय चलो तहँ को सुसखा सब जाय रहे पुर के नर-नारी ।।
बहु रंग के फूल अनन्त खिले अलि बृंद अचंभित आज अनारी ।
मन्द गती की समीर सुगन्धित कंपित पुष्प, लता, पट, डारी ।।
सर कन्चन थाल में पंकज लै करपै नव चंचल अंचल डारे ।
स्वागत हेतु खड़ी हरि के कछु लाज के कारन घूँघुट काढ़े ।।
अवलोकत हूँ खग हूँ न उडें अति आतुर ह्वे धुनिहूँ न सुनावें ।
आवत देखि के राधे गोपाल उतावल ह्वे सुधि-बुद्धि नसावें ।।
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