Friday 27 September 2019

'लोक साहित्य में ग्राम्य जीवन'


जुलाई 18, 2019 को आकाशवाणी लखनऊ द्वारा 'लोक साहित्य में ग्राम्य जीवन' विषय पर मेरी एक भेंटवार्ता प्रसारित हुई थी जिसका कुछ अंश निम्नवत है । इसी तरह 'अवधी बोली साहित्य में ग्राम्य दर्शन' विषय पर मेरे द्वारा प्रस्तुत वार्ता की रिकार्डिंग दिनांक 15 अक्तूबर 2019 को होनी है । यह आपको 22 अक्तूबर को सायं 6.20 बजे आकाशवाणी पर उपलब्ध होगा ।
'लोक साहित्य में ग्राम्य जीवन'
आज भी हमारे देश की जनसंख्या का बड़ा हिस्सा परंपरावादी लोगों का है । ये लोग या तो अशिक्षित लोग हैं या अल्प-शिक्षित लोग हैं । ऐसे लोगों द्वारा जो स्वाभाविक साहित्य उत्पन्न होता है उसी को लोक साहित्य कहते हैं । सामान्यतः स्थानीय भाषा में गाये जाने वाले गीत, पचरा, भजन, मांगलिक कार्यक्रमों में प्रचलित सोहर व गारी, विभिन्न ऋतुओं में गायी जाने वाली कजरी, धमाल, बच्चों को सुलाने के लिए कहानियाँ व लोरी इत्यादि हमारे लोक साहित्य के अंग हैं । इस साहित्य में मुख्य रूप से ग्रामीण जीवन का चित्रण मिलता है और हमारी प्राचीन संस्कृति और जीवन शैली को जीवंत प्रस्तुत करता है ।
यूँ तो लोक-साहित्य का प्रचलन केवल गावों तक ही सीमित नहीं है – शहरों में भी यह लोकप्रिय है फिर भी बढ़ती हुई शिक्षा व आधुनिकता को देखते हुए शनैः शनैः यह साहित्य अब ग्रामीण अंचल में सिकुड़ता जा रहा है । आज भी खेतों में काम करते समय किसान सामूहिक गीत गाते हैं, त्योहारों में खुशियाँ मानने के लिए गीत गाकर नृत्य करते हैं, सावन माह में पेड़ों पर झूले डालकर महिलाएँ व किशोरियाँ गा गा कर झूले का आनंद लेती हैं, विवाह, मुण्डन आदि संस्कारों में पारंपरिक गीत गाकर विभिन्न रस्में पूरी की जाती हैं । जहाँ तक शहरों का सवाल है वहाँ ये सारे रश्म व रिवाज काफ़ी हद तक बदल चूक हैं ।
भारत के प्रमुख लोकगीत अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कश्मीरी, कोरकू, कुमाँऊनी, खड़ी बोली, गढ़वाली, गुजराती, गोंड, छत्तीसगढ़ी, निमाड़ी, पंजाबी, पँवारी, बघेली, बाँगरू, बांग्ला और बुन्देली हैं ।
लोक-संस्कृति के सन्दर्भ में जहाँ तक उत्तर प्रदेश का सम्बन्ध है तो ध्यातव्य है कि उसमें उत्तर प्रदेश के लोक-संस्कृति का प्रतिबिम्ब हू-ब-हू देखने को मिलता है। यहाँ के निवासियों का रहन-सहन, रीति-रिवाज, खान-पान, तीज-त्यौहार, व्रत-उपवास, आस्था-विश्वास, सुख-दु:ख सभी की अनगिन छवियों का भावन उत्तर प्रदेश के लोक-साहित्य के अन्तर्गत किया जा सकता है।
उत्तर प्रदेश की संस्कृति ग्राम्य संस्कृति है। यहाँ के लोग मुख्यत: खेती पर निर्भर करते हैं। उनके जीवन का केन्द्र और धुरी सब कृषि पर ही टिका हुआ है। यही कारण है कि यहाँ का लोक-संसार हो या लोक साहित्य सभी अत्यन्त सहज है, प्रकृत है। बनावट या कृत्रिमता का कहीं कोई नामोनिशान नहीं है। प्रकृति से घनिष्ठता रखने वाला लोक-मन प्रकृति के हर कोमल-कठोर रूप का खुली बाँहों से स्वागत करता है। पर्वोँ–त्यौहारों के प्रति जो उल्लास यहाँ के लोगों में दिखायी पड़ता है वह यहाँ के लोकगीतों में भी दिखायी पड़ता है।

अवधी के इस लोक गीत को देखिए कि नायिका जितनी चंचल है उतनी ही भोली है :
मैं अलबेली गुदाय आई गुदना
मैं जो गई पानी भरने संग गए अपना
टूट गयी रस्सी लटक गये अपना
मैं अलबेली...
मैं जो गई रोटी करने संग गए अपना
फूल गई रोटी पिचक गए अपना
मैं अलबेली...

यहाँ दूसरी नायिका को देखिए जो कुएँ में जल भरने आई है - अहह कितनी प्रफुल्लित है !
जल भर ले हिलोरें हिलोर रसरिया रेशम की
अरर जल भर ले हिलोरे हिलोर ----
रेशम की रसरी तब नीकी ल़ागे
सोने की गगरिया होय --रसरिया रेशम की

उत्तर प्रदेश में प्रचलित लोक गीतों में सोहर सबसे लोकप्रिय गीत है । ग्रामीण आँचलों में महिलाएँ विभिन्न मांगलिक कार्यक्रमों में इसे बड़े चाव से गाती हैं :
बंसी तो बाजी मेरे रंग-महल में
सासू जो ऐहैं राजा चढ़वा चढ़न को,
उनहूँ को नेग दे देना मोरे अच्छे राजा,
उनहूँ को नेग दे देना मोरे भोले राजा,
मोती से उजले राजा,
फूलों से हलके राजा,
तारों से पतले राजा,
नैनों से नैन मिलाना ,मुखड़े से हँस बतलाना,
रंग-महल में ।

शरद और चैत्र नौरात्रि में गाँव गाँव में देवी गीत के मधुरिम संगीत भला किसके मन को मुग्ध नहीं कर सकता :
देबी दयाल भईं अंगन मोरे होय निसरी
मईया के अँखियाँ आमे कै फकियाँ
भौहें कमान तनी अंगन मोरे होय निसरी
मईया कै दतवा अनारे कै दाना
जिभिया कमल की कलि अंगन मोरे होय निसरी

होली का त्यौहार भी यहाँ बड़े चाव से मनाया जाता है। पूरा गाँव मिलकर होली खेलता है। क्या बूढ़ा - क्या जवान, क्या पुरुष – क्या स्त्री, क्या बाल – क्या वृद्ध सब होली के रंगों में सराबोर हो जाते हैं। ऐसा ही एक चित्ताकर्षी उदाहरण इस लोकगीत में द्रष्टव्य है –
अवध मा होरी खेलें रघूबीरा
कहिके हाथ कनक पिचकारी
केहि के हाथ मनचीरा
अवध मा होरी खेलें रघूबीरा

विवाह गीत का एक उदाहरण :
मोरे पिछवरवाँ लौंगा कै पेड़वा लौंगा चुवै आधी रात
लौंगा मै चुन बिन ढेरिया लगायों लादी चले हैं बनिजार
लड़ चले हैं बनिजरवा बेटौवा लादि चले पिय मोर
अबहीं बारी है हमारी उमिरिया बाबा
डारो शादी की अबहीं ना बेडिया बाबा
मै तोरी बगिया की नाजुक कलिया
डोले फिरूँ तोरे अँगना महलिया
तोहरे घरवा की हम हैं अंजोरिया बाबा

सावन में झूला झूलते समय किशोरियाँ जब इस गीत को गाती हैं तब सभी के हृदय पुलकित हो उठते है और यह अनुभव होता है कि मानों वर्षा ऋतु के रूप में प्रकृति ने मानव को उपहार प्रदान किया है :
झूला पड़ा कदम की डाली
झूले कृष्ण मुरारी नाय ...

अवधी के नकटा का एक विशेष ही आकर्षण है :
हमसे खिंचत न गगरिया कमर मोरी छल्ला मुन्दरिया
वोहि सासू मोरी जनम की बैरनि,
दुई-दुई भरावें गगरिया, कमर मोरी छल्ला मुन्दरिया
वोहि देवरा मोरे बचपन का साथी
काँधे टेकावै गगरिया मोरी छल्ला मुन्दरिया

रोपनी गीत:
रिमझिम बरसे पनियाँ,
आवा चली धान रोपे धनियाँ।
लहरत बा तलवा में पनियाँ,
आवा चली धान रोपे धनियाँ।
सोने के थारी मं ज्योना परोसैं,
पिया कां जेंवाईं आईं धनियाँ।
झंझरे गेरुआ मं गंगा जल पनियाँ,


इसी तरह बाल-गीत, जाँत गीत, विदाई गीत, रोटी गीत, निर्गुण आदि आज भी पूरे मस्ती में गये जाते हैं ।

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