Saturday 26 December 2015

धर्म



मैने ऐसे बहुत से लोगों के विचार सुने हैं जो धर्म के नाम से चिढ़ते हैं | किंतु यदि उनकी भावना को झाँकें तो लगेगा कि उनकी यह प्रतिक्रिया ग़लत नहीं है क्योंकि आज या कभी भी धर्म के नाम पर समाज का जितना भला हुआ है उससे कहीं अधिक नुकसान हुआ है | अब देखना यह है कि सांप्रदायिकता या सांप्रदायिक हिंसा का कारण धर्म है या उससे जुड़ी कोई दूसरी चीज़ जो निरन्तर घृणा का कारण बनती रही है | अब यहाँ पर ज़रूरत है यह जानने की कि धर्म है क्या | संस्कृति में धर्म की सबसे पूर्ण और सटीक परिभाषा है: ‘धारयेति इति धर्मः’ अर्थात जो धारण करने (अपनाने) योग्य है वही धर्म है | या यह कह लीजिए कि वह सब कुछ करना धर्म है जो अपने सहित सबके लिए कल्याणकारी हो: जैसे सहायता करना, सेवा करना, सत्य बोलना, दया करना, मिलजुल कर रहना आदि, आदि | यहाँ हम इस तथ्य पर पहुचते हैं कि धर्म मानवताबादी कार्यों की वकालत करता है जो किसी भी सूरत भेद-भाव उत्पन्न नहीं करता और न ही उसके पालन में किसी तरह की हिंसा की कोई गुंजाइश है | फिर क्यों धर्म के नाम पर सदभावना समाप्त होती है और हिंसा भड़क जाया करती है ? इस प्रश्न का उत्तर निकालने पर यदि विचार किया जाय तब यह निकल कर आएगा कि धर्म का पालन करने या कराने के उद्देश्य से विश्व के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग मार्ग तलासे गये जिन्हें पंथ कहा जा सकता है वे ही सारे विकार की जड़ हैं क्योंकि उसमें अलग-अलग वेश भूषा, पहनावा सहित ईश्वर आराधना के अलग-अलग तरीके निर्धारित किए गये और उन पर भौगोलिक, सामयिक और सामाजिक सभ्यता की असमानता का भी पूर्ण प्रभाव पड़ा | अब चूँकि हर पंथ एक दूसरे से भिन्न हो गये, इसलिए पूरा मानव मात्र विभिन्न संप्रदायों में बँट गया और हर संप्रदाय के लोगों में अपनी श्रेष्ठता का अहंकार पैदा हो गया |

धर्म और पंथ में क्या भेद है ? धर्म मानव के कई पीढ़ियो से विभिन्न विचारकों द्वारा प्रतिपादित सामाजिक नियमो का संग्रह है | पंत वह पध्यति है जिसे एक प्रभावशाली व्यक्ति किसी धर्म के कुछ नियमों को अपने अनुसार संशोधित करके तैयार करता है और अनुयायी बनाकर उन्हें एक विशेष जीवन शैली में जीने के लिए प्रेरित करता है | अर्थात, धर्म समाज से उत्पन्न होता है और पंथ किसी एक व्यक्ति से, धर्म किसी विशेष जीवन शैली के लिए बाध्य नहीं करता जबकि पंथ बाध्य करता है, धर्म परिवर्तन के लिए या नये विचारों को शामिल करने के लिए समाज को स्वतंत्र रखता है जबकि पंथ में कोई चीज़ नयी जोड़ने की कोई स्वतंत्रता नहीं होती | सरकार यदि बाबा राम रहीम के साम्राज्य को समाप्त न करती तो धीरे धीरे यह भी एक नया पंथ बना लेता जो शताब्दियों तक चलता रहता | यही कारण है कि संसार में धर्म तो एक है परंतु पंथ अनेक हैं |

विभिन्न पंथ में निहित अहंकार से समाज को बाँटने का काम राजनीति में बहुत समय से होता रहा है जिसका परिणाम कभी युद्ध, कभी गृहयुद्ध के रूपों में देखा गया है | इसके अतिरिक्त एक पंथ के अनुयायी दूसरे पंथ के अनुयाइयों के साथ रहने में असहज और असुरक्षित महसूस करते हैं क्योंकि वे एक दूसरे पर भरोसा नहीं करते | यही कारण है कि किसी भी देश का बहुसंख्यक किसी अन्य पंथ के अनुयायी शरणार्थी को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होता | कुल मिलाकर, प्रत्येक पंथ की पृष्ठभूमि पर जो भी सार्वभौमिक और सनातन है, या सभी पंथों में स्थित वह भाग जो समरूपी है केवल वह ही धर्म है जो कि प्रेम का जनक है न कि घृणा का | यदि पंथ न होता, मात्र धर्म होता तो कोई समस्या न होती |

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