सच या क्या वह सपना था ?
नायक
नायिका से बहुत दूर होने के कारण उसके प्रेम में अत्यंत व्याकुल है । एक
रात वह किस तरह प्रणय क्रीड़ा की स्नेहिल कल्पना करता है इसका चित्रण करते हुए इस कविता की रचना मैने 15 मई,
1988 को की थी ।
कभी दौड़ता रुकता चलता
कभी बैठ क्यों जाता है ?
हँसता कभी विहँसता
क्यों
मदमस्त हुआ क्यों जाता
है ?
मन ही मन तू बातें
करता
बुनता-गुनता तू क्या
है ?
निशा ने पूछा पगले
वायू
हुआ आज तुझको क्या है ?
मन्द-मन्द मुस्कान
बताती
तू कुछ छिपा रहा है ।
पवन बता क्या प्रिया
पुष्प
का तेरा मिलन हुआ है ।
प्रतिउत्तर में कुछ
कहकर
दीवाना वह भग जाता था,
झूम-झूम औ घूम-घूम
सर-सर करके इतरता था ।
ऐसे में वह सोया था
क्षणदा के आँचल को ढक
के ।
परी लोक में खोया था
निद्रा मदिरा को पी
करके ।
सहसा एक आगंतुक के
आने का आहट हुआ उसे ।
दबे पाँव से खोज रही
न जाने थी वह वहाँ
किसे ।
इधर-उधर कुछ देखा
ढूँढा
अन्त में आई उसके पास ।
आलिंगन कर सौप दिया
फिर
अपना सब कुछ उसके हाथ।
अरे, अरे! यह कौन आ
गया
हुआ चकित वह उसको देख,
इस रजनी में रमणी आए
इसमें था उसको संदेह ।
क्या था तभी अचानक
बैठी
उसके ही वह ठीक समीप,
प्रेम उमड़ता उसमें था
उसको ऐसा हुआ प्रतीत ।
अपने कोमल कर से उसका
आलिंगन जैसे ही किया
रोम-रोम सब सिहर उठा
स्पन्दित सारा बदन हुआ ।
जैसे-जैसे प्रेम ने
तोड़ा
लज्जा की दीवारों को
उतना वह भी निकट से
करती
स्नेहिल व्यवहारों को ।
धीरे-धीरे परी ने उसको
बसन परों में छिपा
लिया,
उसे घेरकर बाहों में
कौतूहल उसमें जगा दिया ।
विद्युत धारा भाँति
प्यार
संचालित होना शुरू हुआ,
हृदय-हृदय थे मिले हुए
उनमें धड़कन गतिमान
हुआ ।
अहः ! स्वास उसकी आती
थी
जैसे गन्ध गुलबों की,
मुख समीप आभास कराती
देव परी के मुख जैसी ।
उसके आनन को ढकते
लहरा कर उसके मसृण केश,
उसी ओट में चुम्बन से
वह उसका करती फिर
अभिषेक ।
लोट रहे थे बक्षस्थल
पर
वृहद वक्ष दोनो उसके,
रह-रह प्रेम उमड़ता
उसमें
प्रेरित हो करके उससे ।
चंचल उसके पैर सुकोमल
पैरों पर चलते फिरते,
आतुरता की अभिव्यक्ति
उसकी ऐसे थे वे करते ।
अब भी वह सुश्रुप्त
दशा में
लेटा सोच रहा था,
बार-बार हर कोशिश कर
उसको पहचान रहा था ।
जब कभी हथेली से
सहलाता
उसकी मन्जु त्वचाओं को,
लगता तब-तब मनो छू रहा
अपनी प्राण प्रिया ही
को ।
मुख प्रदेश से सरक के
मुख
फिर वक्ष धरातल पर आया,
नासिक तब जा टीका हृदय
पर
उसे गुदगुदी लग आया ।
इस मानस का उस मानस को
उसका लाते थे इसको,
आते जाते स्वास संदेसा
उसके देते दोनों को ।
उसकी अलकों में उसका
अब
चेहरा ऐसा था उलझा,
सागर लहरों में जैसे
लघु शैल एक दिखता
छिपता ।
बार-बार वह पता लगाता
पड़ी हुई है क्या उस
पर,
कौन भला क्यों दिया है
उसको
अपना पूर्ण समर्पण कर ।
कुछ भी हो पर छूता
जैसे
फूलों को उसका माली
वाहों में ले उसे
पिलाया
प्रेम भरी वैसे प्याली ।
हल्के से फिर उसे
सुलाया
नरम मखमली सैया पर,
वह नाविक बन गया सुमन से
लदी मनो एक
नैया पर ।
अनुपम दृश्य देखने की
उत्कंठा मन में गूँज
उठी,
तरुणाई तूफ़ानों में
मर्यादा उसकी धूल हुई ।
सहमें-सहमें पट पर्दे
की
लगा खीचाने वह डोरी,
थोडा खुला पायोधर उसने
यौवन की पकड़ी चोरी ।
चुरा-चुरा कर उसको
उसमें
संचित उसने रखा था,
उस वैभव को उसे लुटाने
आना शायद सोचा था ।
अरे, इसे तो सोचा
था
भोरी उसकी अपनी ने !
उसे डुबाना चाहा था
उसकी इस निर्झरनी ने !
उसने हा ! तब जान लिया
वह कौन वहाँ क्यों आई
थी,
उसको अब विश्वास हुआ
वह उसकी अपनी आई थी ।
फिर थोडा सा और खींचकर
निरावरण कर दिया उसे,
पंकज के बर बृंद-बृंद
के
दृश्य लुभाने दिखे उसे ।
आनन्दित मकरन्दो को
पी करके अलि होता
जितना
उन जलजो से लिपट-लिपट कर
पुलकित होता वह उतना ।
तभी अचानक ही क्या
हा.. हा.. का स्वर नाद
हुआ,
व्याकुल लहरों की
गर्जन का
उसे कहीं आभास हुआ ।
ध्यान लगाया तो फिर
पाया
और नहीं ऐसा कुछ है,
यह तो उसकी प्रेम उमड़
का
अंतः से आता सुर है ।
डरते-डरते बादल से
शशि को पूरा ही मुक्त
किया,
फैल चंद्रिका गयी
चंद्र से
तम उसमें सब लुप्त हुआ ।
पलकें बंद किए लेटी
स्तब्ध शांत हो सोई थी ।
सोई क्या थी उसे पता
था
वह तो उसमें खोई थी ।
प्रथम बार था उसने
देखा
जनागमन का अमिट द्वार,
स्वागत करने हेतु
बुलाता
उसको था वह बारंबार ।
स्वर्ग द्वार का बैभव
ऐसा
धैर्य नहीं रख पाया वह,
उत्तेजित हो उठा शीघ्र
वह
गिरि समुद्र को ढकने
को ।
किन्तु अचानक शून्य
मात्र ही
उसकी बाहों में आया,
उससे उसकी छीन ले गया
जाने किसने क्या पाया
!
‘पगले, यह सब सपना था ।
पर सपना भी तो अपना था ?
अपने से सपना लुप्त
हुआ !
सपना था या कुछ अपना
था ?'
‘लुटे-लूटे से बैठे-
बैठे
क्या तुम सोच रहे हो ?
सच था या सपना ही, क्यों
हाथों को मसल रहे हो ?’
-
रमेश चन्द्र तिवारी
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