उलझा भारत
कांग्रेस के लम्बे शासन, उसके
विकास विरोधी नीति और पराधीनता
से पिटी हुई भोली-भाली ग़रीब जनता की भावनाओं से खेल कर उस पर शासन करने की चालाकी
से कुंठित होकर मैने इन पंक्तियों को 03 अक्तूबर
1988 को लिखा था ।
नहीं
मानता भारत तुममें पहले सा पुरुषार्थ नहीं,
कैसे
समझूँ बाहें तेरी बलविहीन लाचार हुईं !
भीम
और अर्जुन के जैसे योद्धा हैं मौजूद यहाँ,
आर्यभट्ट
से हो सकते हैं यहाँ छोड़कर और कहाँ ?
अब
भी तेरी धरती पर हैं विक्रम और अशोक महान,
छिपे
मिलेंगे भोज परीक्षित यहाँ-वहाँ कौटिल्य तमाम ।
रोज-रोज
हैं के डी बाबू, ध्यान
चन्द पैदा होते,
बहुत
दिखेंगे गामा, दारा
कुश्ती लड़ने के भूखे ।
आज
अभी भी सिमटा तेरे सीने में साहस सागर,
प्रतिभाओं
के तारे तुममें जग-मग करते हैं भारत ।
शक्ति
और समृद्धि की है किसी तरह की कमी नहीं,
भू
जंगल में शेर तुम्ही थे वही शेर हो तुम अब भी ।
किंतु
फँसे हो राजनीति के विषम जाल में बुरी तरह,
उछल-कूद
कर गिरते हो असहाय हाय फिर उसी जगह !
स्वार्थ,
ईर्ष्या, कपट,
फूट, छलछन्द,
लूट, धोखा,
चोरी,
तुम्हें
फँसा कर रखे है इन घातक फन्दो की डोरी ।
नेता
रूपी आज मदारी तुमको नाच नचाते हैं,
दुनिया
भर में घुमा-घुमा कर तेरी हँसी कराते हैं ।
बहुत
दिनों तक तुर्क और अंग्रेज शिकारी पड़े रहे,
तुझे
क़ैद पिंजड़े में करने के चक्कर में अड़े रहे ।
मगर
सभी उम्मीदें उनकी आख़िर में नाकाम हुईं,
तुम्हें
तसल्ली मिली लगा कि राहें अब आसान हुईं ।
किंतु
तुम्हें आभास नहीं था राजनीति उलझा लेगी,
बावजूद
आगे बढ़ने के मुँह के बल पलटा देगी ।
हे
भारत, अब पलट पड़ो - इन
मक्कारों को ललकारो,
अपने
घातक पंचों से तुम नोच फाड़ उनको डालो !
नहीं
तुम्हें आज़ाद बताकर पराधीन वे रखेंगे,
खून
तुम्हारा चूस-चूस कंकाल तुम्हें
वे कर देंगे ।
एक
बार इन वेइमानों से छूट जाय दामन तेरा,
है
माई का लाल नहीं जो टक्कर दे दावा मेरा ।
-
रमेश चन्द्र तिवारी
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