Saturday 26 September 2015

उलझा भारत

कांग्रेस के लम्बे शासन, उसके विकास विरोधी नीति और पराधीनता से पिटी हुई भोली-भाली ग़रीब जनता की भावनाओं से खेल कर उस पर शासन करने की चालाकी से कुंठित होकर मैने इन पंक्तियों को 03 अक्तूबर 1988 को लिखा था
नहीं मानता भारत तुममें पहले सा पुरुषार्थ नहीं,
कैसे समझूँ बाहें तेरी बलविहीन लाचार हुईं !

       भीम और अर्जुन के जैसे योद्धा हैं मौजूद यहाँ,
आर्यभट्ट से हो सकते हैं यहाँ छोड़कर और कहाँ ?

अब भी तेरी धरती पर हैं विक्रम और अशोक महान,
छिपे मिलेंगे भोज परीक्षित यहाँ-वहाँ कौटिल्य तमाम

       रोज-रोज हैं के डी बाबू, ध्यान चन्द पैदा होते,
बहुत दिखेंगे गामा, दारा कुश्ती लड़ने के भूखे

आज अभी भी सिमटा तेरे सीने में साहस सागर,
प्रतिभाओं के तारे तुममें जग-मग करते हैं भारत

       शक्ति और समृद्धि की है किसी तरह की कमी नहीं,
       भू जंगल में शेर तुम्ही थे वही शेर हो तुम अब भी

किंतु फँसे हो राजनीति के विषम जाल में बुरी तरह,
उछल-कूद कर गिरते हो असहाय हाय फिर उसी जगह !

        स्वार्थ, ईर्ष्या, कपट, फूट, छलछन्द, लूट, धोखा, चोरी,
        तुम्हें फँसा कर रखे है इन घातक फन्दो की डोरी

नेता रूपी आज मदारी तुमको नाच नचाते हैं,
दुनिया भर में घुमा-घुमा कर तेरी हँसी कराते हैं

       बहुत दिनों तक तुर्क और अंग्रेज शिकारी पड़े रहे,
तुझे क़ैद पिंजड़े में करने के चक्कर में अड़े रहे

मगर सभी उम्मीदें उनकी आख़िर में नाकाम हुईं,
तुम्हें तसल्ली मिली लगा कि राहें अब आसान हुईं

        किंतु तुम्हें आभास नहीं था राजनीति उलझा लेगी,
        बावजूद आगे बढ़ने के मुँह के बल पलटा देगी

हे भारत, अब पलट पड़ो - इन मक्कारों को ललकारो,
अपने घातक पंचों से तुम नोच फाड़ उनको डालो !

        नहीं तुम्हें आज़ाद बताकर पराधीन वे रखेंगे,
        खून तुम्हारा चूस-चूस कंकाल तुम्हें वे कर देंगे

एक बार इन वेइमानों से छूट जाय दामन तेरा,
है माई का लाल नहीं जो टक्कर दे दावा मेरा
-          रमेश चन्द्र तिवारी

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