Monday 27 July 2015

DR APJ Abdul Kalam



The nation should learn just a bit if not much

From what the great son of Mother India,

DR APJ Abdul Kalam, did for the country.

He took nothing from the soil

But gave the grandeur, the glory, the strength, the name, the fame

And everything to it.

He loved his motherland;

He loved every child of the land;

He was the guide, the guardian,

The inspiration, the caring father of the countrymen;

He put in every moment of his life, even the last one,

To make India stronger and more intellectual.

He was our real asset;

He was our pride and joy;

He was our heart and soul.

Dad, you are gone, leaving us alone!

Who will teach us, who will call us ‘our affectionate children’?

We are deprived of your warm love!

Dad, God will love you as you loved us!

You will always be in our hearts!


- Ramesh Tiwari, with tears streaming down. 

Wednesday 22 July 2015

पर्यावरण

पर्यावरणशीर्षक बाल-कविता को मैने 21 मई, 1988 को रचा था | विभिन्न कवि सम्मेलनों में लोगों ने इसकी जमकर तारीफ़ की थी |

सिसक-सिसक कर रोती थी, वन के चिड़ियों की रानी
पिघल-पिघल दुख गिरता था, आँखों से बनकर पानी |

वहीं पास में उसका था, नन्हा सा प्यारा शिशु बैठा
दुखी हो रहा वह भी था, माता को देख-देख रोता |

मातृ अश्रु को पोंछ-पोंछ कर, बार-बार था पूछ रहा
हे माँ, मुझे बता दे तुझको, कौन कष्ट है बाध रहा ?’

रुँधे गले से फिर वह बोली, ‘बेटा मैं हूँ दुखी नहीं
इस तरह वेदना छिपा रही थी, पर ऐसे वह छिपा नहीं |

फूट-फूट कर विलख पड़ी, नयनों में बादल घिर आये
जिसका घर हो उजड़ गया, उसको संतोष कहाँ आये |

वो हरियाली छाँव निराली, स्वर्गिक वे पत्ते औ डाली
छोटे-छोटे गेह घोसले, चूं-चूं ची-ची की खुशियाली |

वे कलरव वे क्रंदन कूंजन, झाड़ी में झरनों का झर-झर
घने वनस्पति में घुस-घुस कर, वायू का करना वह सर-सर |

हाय ! सभी के सभी मिट गये, जंगल के कट जाने से
कितने जीवन उजड़ गये, उनकी कुटिया उड़ जाने से |

आख़िर में सब बता दिया माता ने अपने बच्चे को,
महाप्रलय भी दिखा दिया, अंजाने मन के सच्चे को |

लम्बी साँस शिशू ने ली, फिर बोला व्याकुल जननी से
उपज़ेंगे फिर कानन वैसे धीरज धर तू धरणी से |

खुश होना औ हँसना माँ, मैं सुबह खेलने जाऊँगा
वहाँ खेलते बच्चों को, सब कुछ कहकर बतलाऊँगा |

फिर मैं उनसे वादा लूँगा, बढ़कर बड़े होंगे जब
हरे-भरे जंगल से फिर से, भू भूषित कर देंगे तब |’

-          रमेश चन्द्र तिवारी

बसंत शुभागमन गीत


इस गीत को मैने फरवरी 1988 में लिखा था | उन दिनों मैं छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में रह रहा था | नव-भारत रायपुर के तत्कालीन संपादक श्री गिरीश पंकज जी ने मेरी इस कविता को बसंत परिशिष्ट में 28 फरवरी 1988 को प्रकाशित किया था |यह मेरी पहली प्रकाशित कविता है |


प्रकृति व्यस्त इतना क्यों है निज रूप सुसज्जित करने में ?
कुछ नई कला को प्रस्तुत करना चाह रही क्या है मन में ?
वन, बाग, सरोवर, खेत सभी फूलों के वैभव से लिपटे,
अपने धुन में अपने गुण की वे डींग मारते ही मिलते |

झुककर कुसुम पवन से कहती रुक ! तू कहाँ को जाता है ?
मेरी मादकता की चोरी कर क्यों, तू मस्ती फैलता है ! 
सर-सर ध्वनि से चपल वायु भी मुड़कर उत्तर देता यूँ,
मैं तो तेरे गुण विखेरकर प्रसनसनीय तुझको करता हूँ |

मधुर स्वरों से कोयल कुऊँ-कुऊँ कर उड़ती इठलाती है
किसके आने का हर्ष इसे जो पत्तों से इतराती है ?
मधूप बृंद भी गुन-गुन करके मत्‍त दशा व्यंजित करते,
कारण नहीं समझ आता किसलिए सभी पगले लगते ?

सजकर नवल पत्र, फूलों से तरु ऐसे क्यों झूम रहे,
हिल-हिल कर ये इधर उधर हैं आपस में मुख चूम रहे ?
नये वस्त्र आभूषण पहने दिशा सुंदरी लगती ऐसी
अभिनंदन के हेतु किसी के द्वार खड़ी बाला जैसी |

नीलवर्ण अति स्वक्ष लगा क्यों यह वितान क्षिति अंबर का,
स्वागत किसका है इसमें नाम भला है क्या उसका ?
अरे | अनोखी भूल हुई पहिचान सका न मैं उसको,
प्रिय सबका बसंतआया आश रही जिसकी सबको !

री भोली ! मैं समझ गया श्रिगार कर रही है तू क्यों,
प्रिय ऋतु-राज मिलन की इक्षा लीन बनाए तुझको यों |
-              रमेश चन्द्र तिवारी 


Monday 20 July 2015

वीरांगना दुर्गावती

5 अक्तूबर 1524 को रानी दुर्गावती का बांदा में चंदेल राजवंश में जन्म हुआ तथा उनका विवाह गौँड राजवंश के दलपत राय से हुआ | वर्तमान जबलपुर उनके राज्य का केंद्र था | दस हज़ार राजपूतों की मामूली सेना से गढ़मण्डला की रानी ने मुगल सम्राट अकबर की विशाल सेना को चुनौती दी थी | 24 जून, 1564 को युद्ध में गंभीर रूप से घायल होने के बाद रानी दुर्गावती ने अपने कटार को सीने में घोंपकर आत्म बलिदान कर लिया था | और इस तरह अपने सतीत्व व राजपूती धर्म को निभाया
वीरांगना दुर्गावतीएक ओज भरी वीर रस की कविता है | इसको पढ़ते समय आपका भी हाथ फड़क न उठे तो समझो इसने कुछ नहीं किया | इसको मैने 24 जून, 1988 को रानी दुर्गावती के बलिदान दिवस पर लिखा था |

दामिनी समान गतिमान, दुतिमान
साथ तीर औ कमान
एक आन पैदा हो गयी,
जिसका कराल विकराल तलवार
ढाल रक्त प्यास से बेहाल
भूमि लाल कर गयी |

दुर्गा प्रचन्ड साथ वती एक और खण्ड
जोड़ के अखण्ड
दुर्गावती कही गयी,
मुगल महान सम्राट को दिखाने
रूप अपना विराट
सैन्य मध्य में भटी चली |

युद्ध में अनन्त दुर्दन्त बलवंत
नहीं पाए खोजे पंथ
देख ऐसी वीर घातिनी,
योधन के झुण्ड-झुण्ड केरे
काट रुण्ड-मुण्ड
बन नाचती चमुण्ड चली वो विनासिनी |

लोथन पे लोथ लदि ढेर जो पहाड़ बने
उसमें से झरने से
खून झरने लगे,
चारों ओर धावे रानी
मारे छितरावे रानी
केलन के पेंड सम शत्रु कटने लगे |

रानी की उदारता का गुण गान
मौत करे
भरि पेट भोजन खिलावे ऐसा कौन है,
प्राणों को बटोरि दूत ढोवें
और पूछे कि बताओ
यमराज महाराज रानी कौन है ?

इत आई रानी कभी उत धायी रानी
ऐसे हर ओर रानी
बस रानी दिखने लगी,
दुर्गा की धारदार तरवार का संहार  
देखि रिपु सेना सारी
चीख भरने लगी |

कोई जान ले के भागे मोरचा
पे आवे कोई
पर ज़्यादे देर नहि जीवित बना रहे,
कोई डर में गिरे वहोश होय
कोई मरे, बिन मारे
यही भाँति बहुत गिरें मरें |

मुगल की सेना थी अपार
पारावार सम
सहसों सिपाही खोय-खोय घटती न थी,
थोड़े से जवानों की ही
आँधी औ तूफ़ानों सी वो
अनी लघु रानी की भी पीछे हटती न थी |

इतने में जाने कैसे बस एक तीर आया
सीधे रानी दुर्गा की
आँख में ही जा धंसा,
पर झट उसको निकाल के
झपट पड़ी उस शेरनी के होते
युद्ध कैसे हो रुका |

अब छेड़ी सिंहनी सी प्राण की
पिपासिनी सी पावक तरंगिनी सी
ध्वंसकारी बन गयी,
रण छोड़ देखते ही अरि भागने लगे
कि हाय-हाय त्रासदी में
त्राहि-त्राहि मच गयी |

गले में भी तभी आई
एक और तीर लगी
खींच अपना कृपाण रानी उर भेद ली,
हँसते चिढ़ाते निज लाज
को बचाते घोर शत्रु को झुकाके
रानी स्वर्ग में प्रवेश की |

-          रमेश चन्द्र तिवारी

Saturday 18 July 2015

एक हो जाएँ अगर

एक हो जायें अगरशीर्षक बाल-कविता की रचना मैने 08 जूलाई, 1988 को की थी | प्रारम्भ में मैने इसे सहयोगी पिपीलिकाके नाम से लिखा था | नव-भारत, रायपुर के तत्कालीन साहित्यिक अंक के संपादक श्री गिरीश पंकज जी ने इसका नाम बदलकर एक हो जाएँ अगरकर दिया और 'बच्चों की फुलवारी' में दिनांक 24 जूलाई, 1988 को प्रकाशित कर दिया |


 

पड़ा हुआ गेहूँ का दाना
देख के चींटी ललचाई |
उसे उठाना चाही लेकिन
तनिक हिला भी न पाई |

कुछ सोचा फिर वापस लौटी
आयी अपने देश को,
उस दाने के बारे में झट
बता दिया हर एक को |

पलक झपकते भर में, बच्चो,
सत सैनिक तैयार हुए,
उस दाने को ढो लाने का
अटल इरादा ठान लिये |

अनुशासन के प्रेमी सारे
पंक्तिवद्ध फिर निकल पड़े |
कई एक हो जाएं एक
तो कौन काम बिन हुआ रहे |

चारों ओर से पकड़ा उसको
एक ओर पर ज़ोर दिया
ऐसे एक मती जीवों नें
उसे खींचना शुरू किया |

सफल हुए लाने में उसको
डाल दिया गोदाम में |
आपस में थे सबके सब
सहयोगी सबके काम में |

एक दूसरे की सहायता
के प्रति तत्पर रहना है |
उन्नति के सौ-सौ दाने
तुमको भी बच्चों लाना है |

-          रमेश चन्द्र तिवारी

Friday 17 July 2015

सच्चा वीर

सच्चा वीरशीर्षक कविता मैने 02 सितम्बर, 1988 को विशेषतः बच्चों के लिए लिखा था | रायपुर जो अब छत्तीसगढ़ की राजधानी है वहाँ के दैनिक देशबन्धु ने अपने बाल अंक में इसे दिनांक 09 अक्टूबर 1988 को प्रकाशित किया था |

एक घने जंगल में हिंसक
एक भेड़िया रहता था |
लोफर दोस्त सियारों को संग
लिए घूमता फिरता था |

वन प्राणी सारे के सारे
उसे देख डर जाते थे,
जल्दी-जल्दी भाग घरों में
वे अपने घुस जाते थे |

सिंह बाघ भी उसके मुँह
न लगना उचित समझते थे |
सभ्य और गंभीर सदा वे
उससे हटकर रहते थे |

इतना था वह ढीठ कि खुद को
सबका राजा कहता था |
जब तब भोले भालों को
बेवजह सताता रहता था |

किसी शत्रु ने इन्हीं दिनों
जंगल पर दिया चढ़ाई कर |
इस कुसमय में वीरों को था
चलना शीघ्र लड़ाई पर |

पर क्या था डरपोक भेड़िया
भागा साथ सियारों के |
ऐसे मौके पर ही दिखते
असली रूप कायरों के |

देश-भक्त वनराज शेर फिर
सेना लेकर निकल पड़े |
खूब बहादुरी से लड़कर
दुश्मन के छक्के छुड़ा दिए |

सच्चा वीर वीरता अपनी
केवल तभी दिखाता है,
देश सुरक्षा या जन-हित पर
जब भी संकट आता है |

शेर की आग्या से सेना ने
उस गिरोह को पकड़ लिया,
उसके किए हुए का, बच्चों,
उसने तगड़ा दंड दिया |

जो सियार या घृष्ट भेड़िए
जैसे व्यक्ति होते हैं,
वे दुनिया में जीवन भर
बस निन्दनीय ही रहते हैं |

-          रमेश चन्द्र तिवारी