Saturday 24 October 2015

My Friend, My Love


I hate thee, O cruel Life!

You shower down every horrid thing on me;

You make me run through the fog

Of confusion and uncertainty – A race without prize;

You force me to bear being stung

By the huge crowd of venomous creatures;

You set me to learn the practices of mad men;

Nay, there... oh I forgot about the blessed friend

With whom to enjoy the divine hours of being alone

In some remote corner of the sky or among the stars.

No, no! I still hate thee, my life.

The love of my life is nothing more than a sweet dream.

But then again I love thee.

Thank you, my little Life, for bringing me

The mere thought of my Love.

- Ramesh Chandra Tiwari

Wednesday 21 October 2015

Dassehra



Every legend of Sanatana is loaded with symbolic significance. Ravana is symbolic of evil genius; Meghnath of violence and intimidation; and Kumbhkaran of sloth and gluttony. On the contrary, Lord Rama symbolically represents virtues; Laxamana, obedience; and Hanuman ji, immaculate power. Vijay Dashami signifies the end of the reign of terror and the establishment of an ideal world. Today is Dassehra, a Hindu festival which is known as Vijaydashmi – the anniversary of Lord Ram’s victory over Ravana. It is celebrated by burning the effigy of Ravana with a determination to follow the path of messianic Ram, who battled with Ravan for ten days, purging hearts of one vice a day, thus changing the social order completely, with no violence, hatred, anger, envy, temptation, conspiracy, theft, lie, lust and indolence. The air was serene, the conscience clear.

“राम राज बैठे त्रयलोका | हर्षित भये गये सब सोका ||

बयरु न कर काहू सन कोई | राम प्रताप विषमता खोई ||

नहि दरिद्र कोऊ दुखी न दीना | नहि कोऊ अबुध न लच्छन हीना ||

सब निर्दंभ धर्म रत पुनी | नर अरु नारि चतुर सब गुनी ||

सब गुनग्य पण्डित सब ज्ञानी | सब कृतग्य नहि कपट सयानी ||” – Sant Tulasi Das

O my countrymen! Do have a moment of quiet introspection and think if your Rama has killed the Ravana in you. If yes – Happy Dussehra!

A revolution in art, science, literature and learning has been modernizing the world and now the global culture is changing so fast that it has almost become difficult for most of the people to keep up with it, though India has already had it millenniums before. Ramayan and Mahabharat are the greatest epics ever written on the earth. Our Ram Charit Manas and Soor Sagar have sketched the great character of Lord of All the Worlds and of different forces that influence the universe. Purans, Vedas, Upnishads, and Sanskrit literature consists of the human experience which the whole humanity can store in millions of years. Our civilization, our culture, our faith, our knowledge are the oldest ones and have taught the world the great lesson of humanity. It is an irony that we are again the primary students in the vast college of nature. We never read our old books that can guide us to move ahead to every field of knowledge and therefore we are followers and not the leaders. We do not follow our religious pathfinders rather we are fancy-free, emancipated and untrammelled by spiritual rules and consequently, we live worse than sheep do. The followers of no other religion feel as free as we do and as a result we are divided in different unorganised groups. Often we feel we are defenceless and ineffectual section of society – why? It is because we never try to know how to practice our religion and to come together to share our feelings with our brothers.

Sunday 18 October 2015

चुपके से आई

'सपनों में चुपके से आई' गीत की रचना मैने २८ मार्च १९८८ को की थी उन दिनों मैं रायपुर मध्य प्रदेश के नर्मदापारा में रह रहा था



रजनी के आँचल में सब सो गये थे
तभी मेरे सपनों में चुपके से आई,
फिर धीरे-धीरे अनिल के सलिल पर
परी तैरती सी पड़ी हो दिखाई ।
लो सानिध्य अनुभूति मैने भी पाई
तभी मेरे सपनों में चुपके से आई ।

आ जा, तू आ जा, मेरे पास आ जा,
उड़ना तुझे, आ जा री, मैं सिखाऊँ !
जी में उमंगें उठी उड़ चलूं मैं
तेरे साथ हो के कहीं दूर जाऊँ ।
पर कोशिशों ने निराशा जताई
तभी मेरे सपनों में चुपके से आई ।

काले दुशाले पे तारों की बुटें
युगल शून्य जगती थे सोए उसी में ।
भूतल हृदय पर मैं दौड़ता था
तू उज्जल परी सी थी फिरती गगन में ।
आतुर दृगों ने धीरज गँवाई
तभी मेरे सपनों में चुपके से आई ।

अंबर का प्रेमी हृदय मानों मैं था
धरती के दिल की तू भी मूर्ति थी,
हम एक के दूसरे में पिरोए
हुए प्यार की भावना जोड़ते थे ।
अचानक मेरी चेतना लौट आई
तभी मेरे सपनों में चुपके से आई ।

नयनों ने खोजा तुझे फिर न पाया
अधूरी रही बात होनी दिलों में,
झूठा था सपना मैं जानता था
फिर भी था उलझा कुछ ढूँढने में ।
जाने तू आकर मेरा क्या चुराई
तभी मेरे सपनों में चुपके से आई ।।
-              रमेश चंद्र तिवारी

Sunday 11 October 2015

सच या क्या वह सपना था ?

नायक नायिका से बहुत दूर होने के कारण उसके प्रेम में अत्यंत व्याकुल है एक रात वह किस तरह प्रणय क्रीड़ा की स्नेहिल कल्पना करता है इसका चित्रण करते हुए इस कविता की रचना मैने 15 मई, 1988 को की थी


कभी दौड़ता रुकता चलता
कभी बैठ क्यों जाता है ?
हँसता कभी विहँसता क्यों
मदमस्त हुआ क्यों जाता है ?

मन ही मन तू बातें करता
बुनता-गुनता तू क्या है ?
निशा ने पूछा पगले वायू
हुआ आज तुझको क्या है ?

मन्द-मन्द मुस्कान बताती
तू कुछ छिपा रहा है
पवन बता क्या प्रिया पुष्प
का तेरा मिलन हुआ है

प्रतिउत्तर में कुछ कहकर
दीवाना वह भग जाता था,
झूम-झूम औ घूम-घूम
सर-सर करके इतरता था

ऐसे में वह सोया था
क्षणदा के आँचल को ढक के
परी लोक में खोया था
निद्रा मदिरा को पी करके

सहसा एक आगंतुक के
आने का आहट हुआ उसे
दबे पाँव से खोज रही
न जाने थी वह वहाँ किसे

इधर-उधर कुछ देखा ढूँढा
अन्त में आई उसके पास
आलिंगन कर सौप दिया फिर
अपना सब कुछ उसके हाथ।

अरे, अरे! यह कौन आ गया
हुआ चकित वह उसको देख,
इस रजनी में रमणी आए
इसमें था उसको संदेह

क्या था तभी अचानक बैठी
उसके ही वह ठीक समीप,
प्रेम उमड़ता उसमें था
उसको ऐसा हुआ प्रतीत

अपने कोमल कर से उसका
आलिंगन जैसे ही किया
रोम-रोम सब सिहर उठा
स्पन्दित सारा बदन हुआ

जैसे-जैसे प्रेम ने तोड़ा
लज्जा की दीवारों को
उतना वह भी निकट से करती
स्नेहिल व्यवहारों को

धीरे-धीरे परी ने उसको
बसन परों में छिपा लिया,
उसे घेरकर बाहों में
कौतूहल उसमें जगा दिया

विद्युत धारा भाँति प्यार
संचालित होना शुरू हुआ,
हृदय-हृदय थे मिले हुए
उनमें धड़कन गतिमान हुआ

अहः ! स्वास उसकी आती थी
जैसे गन्ध गुलबों की,
मुख समीप आभास कराती
देव परी के मुख जैसी

उसके आनन को ढकते
लहरा कर उसके मसृण केश,
उसी ओट में चुम्बन से
वह उसका करती फिर अभिषेक

लोट रहे थे बक्षस्थल पर
वृहद वक्ष दोनो उसके,
रह-रह प्रेम उमड़ता उसमें
प्रेरित हो करके उससे

चंचल उसके पैर सुकोमल
पैरों पर चलते फिरते,
आतुरता की अभिव्यक्ति
उसकी ऐसे थे वे करते

अब भी वह सुश्रुप्त दशा में
लेटा सोच रहा था,
बार-बार हर कोशिश कर
उसको पहचान रहा था

जब कभी हथेली से सहलाता
उसकी मन्जु त्वचाओं को,
लगता तब-तब मनो छू रहा
अपनी प्राण प्रिया ही को

मुख प्रदेश से सरक के मुख
फिर वक्ष धरातल पर आया,
नासिक तब जा टीका हृदय पर
उसे गुदगुदी लग आया

इस मानस का उस मानस को
उसका लाते थे इसको,
आते जाते स्वास संदेसा
उसके देते दोनों को

उसकी अलकों में उसका अब
चेहरा ऐसा था उलझा,
सागर लहरों में जैसे
लघु शैल एक दिखता छिपता

बार-बार वह पता लगाता
पड़ी हुई है क्या उस पर,
कौन भला क्यों दिया है उसको
अपना पूर्ण समर्पण कर

कुछ भी हो पर छूता जैसे
फूलों को उसका माली
वाहों में ले उसे पिलाया
प्रेम भरी वैसे प्याली

हल्के से फिर उसे सुलाया
नरम मखमली सैया पर,
वह नाविक बन गया सुमन से
लदी मनो एक नैया पर

अनुपम दृश्य देखने की
उत्कंठा मन में गूँज उठी,
तरुणाई तूफ़ानों में
मर्यादा उसकी धूल हुई

सहमें-सहमें पट पर्दे की
लगा खीचाने वह डोरी,
थोडा खुला पायोधर उसने
यौवन की पकड़ी चोरी

चुरा-चुरा कर उसको उसमें
संचित उसने रखा था,
उस वैभव को उसे लुटाने
आना शायद सोचा था

अरे, इसे तो सोचा था
भोरी उसकी अपनी ने !
उसे डुबाना चाहा था
उसकी इस निर्झरनी ने !

उसने हा ! तब जान लिया
वह कौन वहाँ क्यों आई थी,
उसको अब विश्वास हुआ
वह उसकी अपनी आई थी

फिर थोडा सा और खींचकर
निरावरण कर दिया उसे,
पंकज के बर बृंद-बृंद के
दृश्य लुभाने दिखे उसे

आनन्दित मकरन्दो को
पी करके अलि होता जितना
उन जलजो से लिपट-लिपट कर
पुलकित होता वह उतना

तभी अचानक ही क्या
हा.. हा.. का स्वर नाद हुआ,
व्याकुल लहरों की गर्जन का
उसे कहीं आभास हुआ

ध्यान लगाया तो फिर पाया
और नहीं ऐसा कुछ है,
यह तो उसकी प्रेम उमड़ का
अंतः से आता सुर है

डरते-डरते बादल से
शशि को पूरा ही मुक्त किया,
फैल चंद्रिका गयी चंद्र से
तम उसमें सब लुप्त हुआ

पलकें बंद किए लेटी
स्तब्ध शांत हो सोई थी
सोई क्या थी उसे पता था
वह तो उसमें खोई थी

प्रथम बार था उसने देखा
जनागमन का अमिट द्वार,
स्वागत करने हेतु बुलाता
उसको था वह बारंबार

स्वर्ग द्वार का बैभव ऐसा
धैर्य नहीं रख पाया वह,
उत्तेजित हो उठा शीघ्र वह
गिरि समुद्र को ढकने को

किन्तु अचानक शून्य मात्र ही
उसकी बाहों में आया,
उससे उसकी छीन ले गया
जाने किसने क्या पाया !

पगले, यह सब सपना था
पर सपना भी तो अपना था ?
अपने से सपना लुप्त हुआ !
सपना था या कुछ अपना था ?'

लुटे-लूटे से बैठे- बैठे
क्या तुम सोच रहे हो ?
सच था या सपना ही, क्यों
हाथों को मसल रहे हो ?’

-          रमेश चन्द्र तिवारी

Tuesday 6 October 2015

प्रेम सागर निरंकुश हुआ जा रहा


इस गीत को मैने 06 सितंबर 1988 को लिखा था ।






जाग जा री प्रिये यामिनी ढल रही
प्रेम सागर निरंकुश हुआ जा रहा ।

तू तो सोई हुई है तुझे क्या पता
ये हृदय ठोकरें किस तरह सह रहा ।
प्यार की व्यग्र लहरें गरज सी रहीं
चित्त का शून्य है गूँजता जा रहा ।
प्रेम सागर निरंकुश हुआ जा रहा….

मत्त मन गीत गाता भटक है रहा
आज अंतःकरण खलभला सा रहा ।
खोल पलकें बँटा ले व्यथायेँ मेरी
मैं इन्हीं हलचलों में कंपा जा रहा ।
प्रेम सागर निरंकुश हुआ जा रहा….

नींद में और भी डूब तू क्यों रही
उर तुम्हारा बता क्या नहीं दुख रहा ।
धड़कनों की गती तीब्रतम हो गयी
देख मानस भवन नीव से हिल रहा ।
प्रेम सागर निरंकुश हुआ जा रहा….

जाग जा री प्रिये यामिनी ढल रही
प्रेम सागर निरंकुश हुआ जा रहा ।

- रमेश चन्द्र तिवारी